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________________ ४७२ प्रेमी-अभिनदन-प्रय जैन-साहित्य के प्रचार का आयोजन करते समय हमे उन सस्थानो का आदर्श अपने सम्मुख रसना चाहिए, जो लोक-कल्याण की भावना मे ग्रन्थो का प्रकाशन करती है। जब तक निजी स्वार्थ को तिलाजलि देकर सत्साहित्य के प्रचार में न जुटा जायगा तव तक कुछ भी नही हो सकता। जैन-साहित्य इतना सर्वाङ्ग सुन्दर साहित्य है और जैन समाज में धन की कमी नहीं है । अगर समाज चाहे तो अल्प मूल्य क्या, विना मूल्य ही ग्रन्थो का वितरण कर सकता है। पर अभी समाज के साधन-सम्पन्न व्यक्तियो का ध्यान इस ओर नही गया। अव समय आ गया है कि इस दिशा मे भरसक प्रयत्न किया जाय । घोर हिंसा की पृष्ठ-भूमि में अहिंसा-प्रेरक साहित्य का जितना प्रचार किया जा सके, करना चाहिए। ___ इसके लिए हमे विद्वानो के सशोधन एव सम्पादन मडल, जैन-मस्कृति के केन्द्र रूप विद्यालय तथा आदर्श जैनग्रन्थालय भी जगह-जगह स्थापित कर देने चाहिए। जन-साहित्य के किसी भी अश के अध्ययन के लिए व्यक्तियों को पूरी सुविधाएँ मिल सके, ऐसा प्रवन्ध होना चाहिए। छात्रवृत्ति, निवन्ध आयोजन, उपाधि-वितरण आदि द्वारा भी जैन-साहित्य के अध्येतायो की सहायता की जा सकती है। इस प्रकार का प्रवन्ध करना कठिन नहीं है, लेकिन ऐसा करने मे एक वात का ध्यान रक्खा जाय कि जो कुछ भी किया जाय वह इतना दृढतापूर्वक किया जाय कि वरावर आगे चलता रहे। इस बारे मे सवसे अधिक यह कठिनाई अनुभव होती है कि योग्य कार्यकर्ता, विद्वान एव प्रवन्धक पर्याप्त मख्या म नही मिल पाते । लेकिन इसकी व्यवस्था होना कठिन नही है, वशर्ते कि हम इस दिशा मे अग्रसर होने के लिए कटिवद्ध हो जायं। सरकार की ओर से जिस प्रकार शिक्षक तैयार करने के लिए शिक्षण केन्द्र चलाये जाते है, उसी प्रकार की सस्थाए हम भी स्थापित कर सकते है। त्रिपुटी] - - - - - - - - - - - - - - -
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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