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________________ जैन - साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन न्यूनाधिक रूप में मिल जाती है । 'जायमी' के रत्नसेन ही इस कथा के 'रत्नशेखर नरपति' है । इसके अतिरिक्त मिहल का वर्णन, योग का उल्लेख, तोता पक्षी (यद्यपि उसका नाम हीरामन नही है - नामकरण सस्कार या तो जायसी ने किया होगा या कि कथा के किमी रचयिता ने), इन्द्रजाल श्रादि सव वातो का वर्णन है । पद्मावती के स्थान पर रानी का नाम रत्नावती है, लेकिन 'पद्मिनी' शब्द मिलता है । रत्नावती के मुख से ही इस प्रकार उसका प्रयोग हा है। रतनशेखर की शोभा पर मुग्ध होकर वह कहती है 'हे नाह । दूरदेमे ठियो विहिग्रयम्मि धारियोसि मए । सूर विणा समोहइ अहवा किं पउमिणी श्रन्न | -- रयणसेहरीकहा ८५ ॥ ४६७ 'जायसी' ने 'पद्मावती' नाम अच्छा नमझा । अत उसे ही रक्खा। उस नाम मे भी कथा प्रचलित रही होगी, ऐसा अनुमान करना अस्वाभाविक नही है । 'पद्मावत' में 'पद्मिनी' हरण के लिए अलाउद्दीन को उपस्थित करना निस्सन्देह ही 'जामी' की नई सूझ है । वह ऐतिहामिक मत्य हैं, यह कहना थोडा कठिन है । रयणमेहरी कथा में भी रानी का हरण हुआ है, लेकिन अन्त में वह इन्द्रजाल मिद्ध होता है और इस प्रकार रानीहरण को इन्द्रजाल सिद्ध करके एक धार्मिक वातावरण में कथा का अन्त किया है । इसमे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन साहित्य से इस प्रकार की अनेक काव्यमय आख्यायिकाओ के रूप हमारे प्रारम्भिक हिन्दी कवियो को मिले और प्रेममार्गी कवियो ने उन पर काव्य लिख कर अच्छा मार्ग प्रस्तुत किया । श्रागे चलकर कई कारणों से वह वारा रुक गई । दूसरी प्रधान धारा जैन - माहित्य में 'उपदेश' की है। यह अधिक प्राचीन है । यह उपदेशात्मकता हमे भारतीय साहित्य में मर्वत्र मिल सकती है, लेकिन जैन - माहित्य की उपदेशात्मकता गृहस्थ जीवन के अधिक निकट आ गई है । भाषा और उसकी सरलता इसके प्रधान कारण है । वर्तमान 'साधुवर्ग' पर जैनसाधुन श्रौर सन्यासियो का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है । जो हो, हिन्दी-साहित्य मे इस उपदेश (रहस्यवाद मिश्रित) परम्परा के श्रादि प्रवर्तक कबीरदाम है श्रीर उनकी शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती रूप जैन - रचनाओ में हमें प्राप्त होता है । सिद्धो का भी उन पर पर्याप्त प्रभाव है, लेकिन उम पर विचार करना विपयान्तर होगा। यह कहना अनुचित और असगत न होगा कि हिन्दी की इस काव्यवारा पर भी जैन साहित्य का पर्याप्त प्रभाव पडा है । कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दु देवसेन और मुनि रामसिंह इत्यादि कवियों की उपदेश - प्रधान शैली और सन्त साहित्य की शैली मे बहुत ममानता है । जिस प्रकार घरेलू जीवन (कवीर ने प्राय उपमान सामान्य जीवन से लिये है— जुलाहों, रहट की घरी श्रादि) के दृश्य लेकर सन्त कवियो ने अपने उपदेगी और मिद्धान्तो को बहुत दूर तक जनता मे पहुँचाया, उसी प्रकार इन जैन कवियो ने भी किया था । सिद्धो मे यह धारा किसी प्रकार कम व्याप्त नही थी और प्राचीन भी काफी थी । भक्ति के सव प्रधान श्रगो का वर्णन इसमें हमें मिलता है । सन्तो पर इसका प्रभाव अवश्य पडा है । यह हम ऊपर देख चुके है कि लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अपभ्रग काव्य में हमें बहुत अधिक सख्या में मिलते है । शृगार, (मयोग और वियोग ), वालवर्णन एव अन्य गृहस्थ जीवन के स्वाभाविक चित्रण प्राय प्राप्त होते है । 'सूरदास' के शृंगार के चित्रो से समानता रखने वाले वर्णन और उनकी बाललीला की याद दिलाने वाले वर्णन भी अपभ्रण माहित्य में पाना कठिन नही है । हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उद्घत पद्यो मे शृगार (विशेष कर वियोग-प्रोषित पतिका) के अनेक अच्छे उदाहरण हैं, जो सूरदाम की गोपियो की याद दिला देते हैं । यहाँ - एक पद्य उद्धृत किये जा रहे है । एक पथिक दूसरे पथिक मे अपनी प्रेमिका के विषय में पूछ रहा है - पहिश्रा दिट्ठी गोरडी दिट्ठी मग्गु निन्त । प्रसूसासेहि कातिन्तुव्वाण करन्त ॥ हेमचन्द्र - - प्राकृत व्याकरण ८ ४३१.
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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