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________________ ४५१ जैन साहित्य परन्तु उक्त अग और अग वाह्य ग्रन्थो के दिगम्बर सम्प्रदाय में सिर्फ नाम ही नाम है । इन नामो का कोई अन्य उपलब्ध नहीं है। उनका कहना है कि वे सब नष्ट हो चुके है। दिगम्बरोने एक दूसरे ढग से भी समस्त जैनसाहित्य का वर्गीकरण करके उसे चार भागो में विभक्त किया है (१) प्रथमानुयोग जिसमें पुराण पुरुषो के चरित और कथाग्रन्थ है, जैसे पद्मपुराण, हरिवशपुराण, त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण (आदिपुराण और उत्तरपुराण), (२) करणानुयोग जिसमें भूगोल-खगोल का, चारो गतियो का और काल-विभाग का वर्णन है, जैसे त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्य-चन्द्र-प्रज्ञप्ति प्रादि। (३) द्रव्यानुयोग जिसमें जीव-अजीव आदि तत्त्वो का, पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष का वर्णन हो, जैसे कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, प्रवचनसार,पचास्तिकाय, उमास्वाति का तत्त्वार्थाधिगम आदि। (४) चरणानुयोग जिसमें मुनियो और श्रावको के आचार का वर्णन हो, जैसे वट्टकेर का मूलाचार, आगाधर के सागार-अनगारधर्मामृत, समन्तभद्र का रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि। इन चार अनुयोगो को वेद भी कहा गया है। दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार वारह अगो के नाम वही है, जो ऊपर लिखे गये है। वारहवें अग दृष्टिवाद के पांच भेद किये है-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका। फिर पूर्वगत के चौदह भेद वतलाये है-१ उत्पादपूर्व, २ अग्रायणी, ३ वीर्यानुप्रवाद, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, ६ प्रत्याख्यान, १० विद्यानुप्रवाद, ११ कल्याण, १२ प्राणावाय, १३ क्रियाविशाल और १४ लोकविन्दुसार। इन वारहो अगो की रचना भगवान् के साक्षात शिष्य गणघरो द्वारा हुई वतलाई गई है। इनके अतिरिक्त जो साहित्य है वह अगवाह्य नाम से अभिहित किया गया है। उसके चौदह भेद है, जिन्हें प्रकीर्णक कहते है १ सामायिक, २ सस्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ विनय, ६ कृतिकर्म,७ दशवकालिक, ८ उत्तराध्ययन, ६ कल्पव्यवहार, १० कल्पाकल्प, ११ महाकल्प, १२ पुण्डरीक, १३ महापुण्डरीक, १४ निशीथ । इन प्रकीर्णको के रचयिता पारातीय मुनि बतलाये गये हैं जो अग-पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता थे। सिद्धान्तोत्तर साहित्य देवधिगणि के सिद्धान्त-ग्रन्थ सकलन के पहले से ही जैन आचार्यों के ग्रन्थ लिखने का प्रमाण पाया जाता है। सिद्धान्त-ग्रन्थो में कुछ ग्रन्थ ऐसे है, जिन्हें निश्चित रूप से किसी आचार्य की कृति कहा जा सकता है। बाद में तो ऐसे ग्रन्थो की भरमार हो गई। साधारणत,ये ग्रन्थ जैन प्राकृत में लिखे जाते रहे, पर सस्कृत भाषा ने भी सन् ईसवी के वाद प्रवेश पाया। कई जैन प्राचार्यों ने सस्कृत भाषा पर भी अधिकार कर लिया, फिर भी प्राकृत और अपभ्रश को त्यागा नही गया। सस्कृत को भी लोक-सुलभ बनाने की चेष्टा की गई। यह पहले ही बताया गया है कि भद्रबाहु महावीर स्वामी के निर्वाण की दूसरी शताब्दी में वर्तमान थे। कल्पसूत्र उन्ही का लिखा हुआ कहाजाताहै। दिगम्बर लोग एक और भद्रवाहु की चर्चा करते है, जो सन् ईसवी से १२ वर्ष पहले हुए थे। यह कहना कठिन है कि कल्पसूत्र किम भद्रबाहु की रचना है। कुन्दकुन्द ने प्राकृत में ही ग्रन्थ लिखे है। इनके सिवाय उमास्वामी या उमास्वाति, वट्टकेर, निद्धसेन दिवाकर, विमलसूरि, पालित्त, आदि आचार्य सन् ईसवी के कुछ आगे-पीछे उत्पन्न हुए, जिनमें से कई दोनो सम्प्रदायो में समान भाव से प्रादृत हैं। पांचवी शताब्दी के बाद एक प्रसिद्ध दार्शनिक और वैयाकरण हुए, जिन्हें देवनन्दि (पूज्यपाद) कहते है । सातवी-आठवी शताब्दी भारतीय दर्शन के इतिहास में अपनी उज्ज्वल प्रामा छोड गई। प्रसिद्ध मीमासक कुमारिल भट्ट का जन्म इन्ही शताब्दियो में हुआ, जिन्होने वौद्धो और जैन आचार्यो (विशेषकर समन्तभद्र और अकलक) पर कटु आक्रमण किया तथा वदले में जैन प्राचार्यों (विशेष रूप से प्रभाचन्द्र मोर विद्यानन्द) द्वारा प्रत्याक्रमण पाया। इन्ही शताब्दियो में सुप्रसिद्ध आचार्य शकर स्वामी हए, जिन्होने अद्वैत वेदान्त की प्रतिष्ठा की। इस शताब्दी में सर्वाधिक प्रतिभाशाली जैन आचार्य हरिभद्र हुए, जो ब्राह्मणवग में उत्पन्न होकर समस्त ब्राह्मण शास्त्रो के अध्ययन के बाद जैन हुए थे। इनके लिखे हुए ८८ अन्य प्राप्त हुए है, जिनमें बहुत-ने छप चुके है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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