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________________ ४४२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ श्रेष्ठी के कनिष्ट भ्राता भरत ने उसे अधिक सक्षिप्त और अधिक विस्तृत रूप से न कह कर सामान्य कथावस्तु को ही कहने का आग्रह किया था और तक्खडु श्रेष्ठी ने भरत के कथन का समर्थन किया और इस तरह ग्रन्थकर्ता ने अन्य बनाने का उद्यम किया। ग्रथकार इस ग्रन्थ के कर्ता महाकवि वीर है, जो विनयशील विद्वान और कवि थे। इनकी चार स्त्रियां थी। जिनवती, पोमावती, लीलावती और जयादेवी और नेमिचन्द्र नाम का एक पुत्र भी था ।' महाकवि वीर विद्वान और कवि होने के साथ-साथ गुणग्राही न्याय-प्रिय और समुदार व्यक्ति थे। उनकी गुण-ग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्य की चतुर्थ सन्धि के प्रारम्भ मे पाये जानेवाले निम्न पद्य से होता है प्रगुणा ण मुणति गुण गुणिणो न सहति परगुणे दठ्ठ । वल्लहगुणा वि गुणिणो विरला कइ वीर-सारिच्छा ॥ अर्थात्--''अगुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणो को नही जानता और गुणीजन दूसरे के गुणो को भी नहीं देखते, उन्हे सहन भी नही कर सकते, परन्तु वीर कवि के सदृश कवि विरले है, जो दूसरो के गुणो को समादर को दृष्टि से देखते है।" कवि का वश और माता-पिता कवि वीर के पिता गुडखेड देश के निवासी थे और इनका वश अथवा गोय 'लाड बागड' था । यह वश काष्ठा सघ की एक शाखा है। इस वश में अनेक दिगम्बराचार्य और भट्टारक हुए है, जैसे जयसेन, गुणाकरसेन और महासेन' तथा स० ११४५ के दूवकुण्ड वाले शिलालेख में उल्लिखित देवसेन आदि। इससे इस वश की प्रतिष्ठा का अनुमान किया जा सकता है। इनके पिता का नाम देवदत्त था। यह 'महाकवि' विशेषण से भूषित थे और सम्यक्त्वादि गुण से अलकृत। इनकी दो रचनाओ का उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है । एक वरागचरित', जिमका इन्होने पद्धडिया छन्द मे उद्वार किया था। दूसरी 'अम्बादेवीरास', जो इनकी स्वतन्त्र कृति मालूम होती है। ये दोनो कृतियाँ अभी तक अप्राप्य है। सम्भव है, किसी भडार में हो और वे प्रयल करने पर मिल जायें। इनकी माता का नाम 'सन्तु' अथवा 'सन्तुव' था, जो शीलगुण से अलकृत थी। इनके तीन लघु सहोदर और थे, जो बडे ही वुद्धिमान् थे और जिनके नाम 'सीहल्ल', 'लक्खणक' और 'जसई' थे, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्यो से प्रकट है 'जाया जस्स मणिहा जिणवइ पोमावइ पुणो वीया। लीलावइति तईया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥८॥ पढम कलत्त गरहो सताण कमत्त विडवि पारोहो। विणयगुणमणिणिहाणो तणनो तह णोमिचंदो त्ति ॥ -जबूस्वामिचरितप्रशस्ति । 'काष्ठा सपो भुविख्यातो जानन्ति नूसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुता क्षिती ॥ श्रीनन्दितटसज्ञश्च माथुरो वागडाभिघ । लाडवाग इत्येते विख्याता क्षिति मण्डले ॥ -पट्टावलि भ० सुरेन्द्रकीति। 'देखो, महासेन प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति, कारजा प्रति ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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