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________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ४३८ ससारमोचक स्पृष्ट्वा शिष्टा. स्नान्ति सवासस । (पृ० २६५-६, विजयनगर सस्करण) वेदान्तियो या ब्रह्मदर्शन के अनुयायियो के प्रति जयन्त ने कठोर शब्दो का व्यवहार किया है, परन्तु ऊपर की आलोचना अद्वैतवादियो के प्रति प्रयुक्त नही जान पडती। भाग १, पृ० १६०-परमब्रह्मवादी । यहाँ एक शार्दूलविक्रीडित छन्द उद्धृत किया गया हैअथ परमब्रह्मवादिन पाहु भावग्रामो घटादिर्वहिरिह घटते वस्तुवृत्या न कश्चित् । तन्मिय्येष प्रपञ्च तमपि च मनुते तत्त्वभूत जनोऽयम् । प्रौढाविद्या विलासप्रवलनरपते पारवश्य गतस्सन् । आत्माद्वैत तु तत्त्व परमिह परमानन्दरूप तदस्तु । भाग १, पृ० २७-२८ मे कुछ काव्यो तथा नाटको मे उद्धरण दिये हुए है, किन्तु उनके रचयिताओ के नाम नही है कृतककुपित बाष्पाभोभि आलोकमार्ग सहसा अजन्त्या (रघु०, ७, ६, फुमार० ७, ५७) पौलस्त्य स्वयमेव याचत इति (वालरामायण, २, २०) ताताज्जन्मवविलडितवियत् वय गत सप्रति शोचनीयताम् (कुमार० ५, ८१) तपस्विभिर्या सुचिरेण लभ्यते कारणगुण्यनुवृत्त्या सूर्याचन्द्रमसौ यत्र प्राज्ञा शक्रशिखामणिप्रणयिनी (बालरामायण, १, ३६) भाग २, पृ० २७३ रावण-सम्बन्धी 'ववतु सर्वे यदाज्ञाम् 'छन्द उद्धृत है। भाग २, पृ० २७३ पर एक छन्द दिया गया है, जिसमे श्रीसध नामक किसी राजा का गुणगान है । मदरास] [अनु०-श्री कृष्णदत्त बाजपेयी
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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