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________________ ४३४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ पृ०७७० पर उसके ग्रन्थ में से एक गद्यखड उद्धृत किया गया है। श्री राहुल साकृत्यायन ने तिब्बत मे प्राप्त सस्कृत के हस्तलिखित ग्रन्थो की सूची में इस लेखक के १३ गन्थो को गिनाया है-उदाहरणार्य, कार्यकारणभावसिद्धि, क्षणभगाध्याय, व्याप्तिचर्चा, भेदाभेदपरीक्षा आदि (देखिए जर्नल ऑव विहार ऐड उडीसा रिसर्च सोसाइटी, जिल्द २८, भाग ४, पृ० १४३-४४)। भाग ४, पृ० ७८७-८८-त्रिलोचन तथा च त्रिलोचन प्रकीर्णके . सर्वेषा नाशहेतूना वैकल्यप्रतिबन्धयो । सर्वदासभवान्नाश सापेक्षोऽपि ध्रुवत्वभाक् ॥ 'एव च ध्रुवभावित्वस्य' आदि (एक लम्बा गद्यखड उद्धृत है)। यह त्रिलोचन वाचस्पति मिश्र का गुरु हो सकता है, जिसका उल्लेख उसने अपनी तात्पर्यटीका मे किया है । रलकीर्ति ने भी अपने अपोहसिद्धि तथा क्षणभगसिद्धि मन्थो मे त्रिलोचन का कथन किया है (हिस्ट्री ऑव इडियन लॉजिक, पृ० १३४) । भाग ४, पृ० ७७४-७५ देवबल तया धर्मोत्तर के एक अन्य पर उसकी टोका। एतेन यदपि धर्मोत्तरविशेषव्याख्यानकोशताभिमानी देववल प्राह-निर्भागेऽपि च कार्ये पावापोद्वापाभ्या विशेषहेतूना विभ्यमसिद्धिरिति छलनोद्यानामनवसा' इति । इस वौद्ध लेखक का उल्लेख श्री एस०सी० वैद्य ने या श्री विद्याभूषण ने अपने न्याय के इतिहास में नही किया। भाग १, पृ० १७३ देवेन्द्र । इस वौद्ध लेखक का हवाला देते हुए लिखा है कि उसने एक ग्रन्थ पर जिसके लेखक का नाम अज्ञात है, टीका की है । उस गन्य से भी यहां उद्धरण दिये हुए है। तदुक्त 'नीलादिश्चित्रविज्ञाने ज्ञानोपाधिरनन्यभाक् । अशक्यदर्शनस्त हि पतत्यर्थे विवेचयन् ॥' प्रत्र देवेन्द्रव्यारया 'चित्रज्ञाने हि यो नीलादि' आदि (एक लवा गद्याश)। पृ० १८० परएक अज्ञातलेखक की ऐसी ही कारिका दी हुई है और उस पर देवेन्द्र की टीका मे से एक लम्बा उद्धरण दिया हुआ है तदुक्त किं स्यात्सा चित्रकस्या न स्यात्तस्या मतावपि । यदीद स्वयमर्थाना रोचते तत्र के वयम् ॥ प्रय देवेन्द्र च्यात्या-'यदि नामफस्या मतो आदि यह देवेन्द्र नामक लेखक देवेन्द्रवोधि हो सकता है, जिसका समय सातवी श० ई. के मध्य का है और जिसने धर्मकीति के प्रमाणवार्तिक पर एक पजिका लिखी है (हिस्ट्री ऑव इडियन लॉजिक, पृ० ३१६)। भाग १, पृ० २४, २५, २७, १७० आदि मे धर्मोत्तर का कथन प्राय किया गया है। इस वौद्धनैयायिक ने न्यायविन्दुटीका, प्रमाणविनिश्चयटीका आदि रचनाएं की है। धर्मोत्तर ८०० ई० में काश्मीर गया था जब वहां जयापीड शासक था (राजतरगिणी, भाग ४, पृ० ४६८)। भाग ५, पृ० १०६६-नेमिचद्रगणि, स्वय ग्रन्थकार श्रीदेव का शिष्य । तया च अस्मद्विनेयस्य निरवद्यविद्यापद्मिनीप्रमोदनद्युमणेः नेमिचन्द्रगणे अत्र व्यतिरेकप्रयोग 'त्वत्प्रति वादि शरीर प्रादि। नेमिचन्द्रगणि के किस ग्रथ का यहा हवाला दिया गया है, यह अज्ञात है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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