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________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिंशिका ३६६ लोग परमात्मा की उपासना करने के लिए अनेक प्रकार के प्रतीको की कल्पना करते हैं, अनेक नाम से अनेक प्रकार की मूर्तियो की रचना करते हैं और पीछे उसी मे डूब कर मूल ध्येय को भूल जाते हैं । ऐसे लोगो की र करके कवि 'न तस्य प्रतिमा अस्ति ।' (श्वे० ४-१६) श्वेताश्वतर के इस कथन का मानो भाष्य करके सच ही कहता है कि जो मूढ होते है वे परमात्मा की अनेक प्रतिमाओ की कल्पना करते है । वस्तुस्थिति तो यह है कि जिनको परमात्मा का स्वरूप अवगत होता है उनके लिए परमात्मा पुन अधिक नमस्कार करने के योग्य नही रहता है । वे स्वय परमात्मारूप बनते है और उनके ऊपर का तम नि शेष हो जाता है । आपो वह्निर्मातरिश्वा हुताश सत्य मिथ्या वसुधा मेघयानम् । ब्रह्मा कीट शकरस्तार्क्ष्यकेतु सर्वं सर्वं सर्वथा सर्वतोऽयम् ॥ ११ ॥ अर्थ -- परमात्मा ही पानी और वह्नि है, पवन और हुताशन है, सत्य और मिथ्या है, पृथ्वी और आकाश है, ब्रह्मा और कोटक है शकर और गरुडध्वज - विष्णु है । यह सर्व - - परमात्मा प्रत्येक प्रकार से प्रत्येक स्थल पर सर्वरूप से है । भावार्थ - कितने ही वैदिक मंत्रो, उपनिषदो और गीता मे यह भावना सुप्रसिद्व है कि एक ही परमात्मा नानारूप धारण करता है और नानारूप से विलसित होता है । यहाँ पर कवि ने इसी भावना को परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाले श्रधिभौतिक और आधिदैविक द्वन्द्वो से अभिन्नरूप मे परमात्मा का वर्णन करके व्यक्त किया है । श्वेताश्वतर के ‘तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा । तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदापस्तत्प्रजापति || ' ( ४ २ ) इस मंत्र की तुलना प्रस्तुत पद्य के साथ कर सकते हैं । तैत्तिरीय (२६) में ब्रह्म के नानारूप धारण करने का वर्णन है उसमे अनेक विरोधी द्वद्वो के माय मे 'सत्य चानृत चाभवत्' इस वाक्य के द्वारा जिस सत्यानृत द्वद्व का उल्लेख है उसे ही कवि ने यहाँ सत्य मृषा कहा है । शुक्ल यजुर्वेद (१९७७) के 'दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापति ।' इस मंत्र में प्रजापति ने मत्य और अनृत इन दो रूपो का व्याकरण किया था इस बात का प्राचीन प्रघात है । यहाँ वह्नि और हुताश इन दो पदो के समानार्थक होने से पुनरुक्ति का भास होता है, परन्तु वस्तुत वैसा नही है । वह्नि से जिस श्रग्नि को समझना चाहिए वह जल विरोधी सामान्य अग्नि लेना चाहिए और हुतारा पद से आहुति द्रव्य को ग्रहण करने वाले यज्ञीय विशिष्ट वह्नि को लेना चाहिए जिसको कि मातरिश्वा से विरोधी कहा गया है । मातरिश्वा का अर्थ वैदिक मंत्रो मे मॉनसून किया है । चतुर्मास का तूफानी पवन या उससे सूचित होने वाला चतुर्मास यह हुताशन विरोधी इसलिए माना गया होगा सामान्य रूप से चतुर्मास में यज्ञप्रथा नही होती है । स एवाय विभृता येन सत्त्वा शश्वदु खा दुखमेवापियन्ति । स एवायमृषयो य विदित्वा व्यतीत्य नाकममृत स्वादयन्ति ॥ १२ ॥ अर्थ -- यह वही परमात्मा है जिसके द्वारा भरे हुए और व्याप्त प्राणी सतत दुखी होकर दुख ही प्राप्त करते रहते है । यह वही परमात्मा है जिसका जान कर ऋषिगण स्वर्ग का अतिक्रमण करके श्रमृत का श्रास्वाद लेते है । भावार्थ -- सभी प्राणी परमात्मभाव से भरे हुए है तथा व्याप्त है । फिर भी वे निरन्तर दुखी रह करके दुख ही प्राप्त करते रहते है । यह कथन विरुद्ध है, क्योकि प्राणी परमात्मरूप हो तो उनको दु ख का स्पर्श ही कैसे हो सकता है ? इस विरोध का परिहार प्रसिद्ध है । तात्त्विक दृष्टि से सभी जीवात्मा परमात्मा रूप है परन्तु अपने सच्चे स्वरूप का भान नही होने से वे दुख प्राप्त करते हैं । इसी वस्तु को कवि ने उत्तरार्ध में व्यतिरेक के द्वारा कही है कि जिन ऋषियो को आत्मज्ञान है वे अमृत ही बनते है । स्वर्ग का अतिक्रमण करके अमृत का आस्वादन करते हैं इस वर्णन में स्पष्ट विरोध है क्योकि स्वर्ग में ही अमृत के अस्तित्व की मान्यता है तो फिर स्वर्ग को प्रतिक्रमण करने वाला उसका आस्वाद कैसे ले सकता है ? इसका समाधान यह है कि स्वर्गीय अमृत वास्तविक अमृत नही है वास्तविक अमृत तो आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप है जो स्वर्ग को अतिक्रमण करने वाले को ही प्राप्त होता है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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