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________________ ३८६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ मे मे पुरुष तत्त्व भी क्षर मे से अक्षर बना । लो० तिलक जो व्याख्या करते है उसको मान्य रक्खे तो ऊपर सूचित भरपुरुषवाद और अक्षरपुरुषवाद ये दोनो स्तर गीता के 'क्षर सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते' इस पद्य मे सूचित किये गये है। अव्यक्त प्रकृति यही अन्तिम तत्त्व पुरुष है और उससे आगे दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसी २४ तत्त्व वाली मास्यतत्त्वज्ञानकी दूसरी भूमिका महाभारत मे, उसके बाद की २५ और २६ तत्त्व वाली दो भूमिकाओ की तरह वणित प्राप्त होती है। परन्तु इस २४ तत्व वाली भूमिका का साख्यदर्शन उसके सच्चे भाव में चरक नामक आयुर्वेदग्रन्थ मे विस्तृत वणित' है। उसमे अव्यक्त-प्रकृति का ही आत्मा, पुरुष, चेतन, परमात्मा, कर्ता, भोक्ता, ब्रह्म आदि स्प से वर्णन है । और उसका ही आश्रय लेकर पुनर्जन्म घटा करके निरात्मवाद का निरसन किया गया है। यह निगत्मवाद ही स्थूल और क्षर भूतराशिविशेष को पुरुष मानने वाली पहली भूमिका है। दूसरी भूमिका मे अविनश्वर प्रकृति तत्त्व के प्रविष्ट होते ही उसमें पुनर्जन्म की प्रक्रिया घटाई गई और उसके साथ ही पहली भूमिका के क्षरपुरुषवाद को नास्तिक कह करके निन्दा की गई। यह कहने की तो शायद ही जरूरत होगी कि व्यक्त क्षर तत्त्वमय पुरुप और अव्यक्त अक्षर प्रकृतिमय पुरुष इन दोनो मान्यताप्रो के समय पुरुष या आत्मा में अनुभव किये जाने वाले ज्ञान सुख-दुःख आदि गुण व्यक्त क्षर तत्त्व के तथा अव्यक्त-प्रकृति तत्त्व के ही है ऐसा माना जाता था और यह मान्यता भी साख्य विचार का आगे चाहे जितना विकास हुआ हो फिर भी वह उसके तत्त्वज्ञान मे स्पष्ट रूप से सुरक्षित है । साख्यतत्त्वज्ञान ने जब प्रकृति से पृथक् और स्वतन्त्र पुरुष का अस्तित्व स्वीकार किया तव भी वह अपनी इस प्राचीन मान्यता को तो पकडे ही रहा कि ज्ञान, सुख-दुख, धर्माधर्म आदि गुण या धर्म ये पुरुष के गुण नही है परन्तु वे तो अव्यक्त या प्रकृति के कार्यप्रपच मे ही आ जाते है। क्योकि वे प्राकृत अन्त करण के ही धर्म है। अप्राकृत चेतनावाद की भूमिका का अवलम्बन लेकर विचार करने वाले दर्शनो में से जैन और न्याय-वैशेषिक दर्शन ने ज्ञान, सुख-दुख, धर्म-अधर्म आदि गुणो को प्राकृत भूमिका से बाहर निकाल करके अप्राकृत स्वतन्त्र चेतन तत्त्व में स्थान दिया। फिर भी अप्राकृत चेतनवाद की भूमिका का स्पर्ण करके विचार करने वाले साख्यदर्शन ने तो उन गुणो को प्राकृत ही माना और अप्राकृत चेतन में उनके अस्तित्व का सर्वथा निषेध किया। इस मौलिक मतभेद का बीज मेरी कल्पनानुसार साख्य तत्त्वज्ञान की ऊपर वर्णित व्यक्त तत्त्वमय और अव्यक्त प्रकृतिमय पुरुष कीन्दो क्रमिक भूमिकामो मे समाविष्ट है, क्योकि यदि जैन, न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन की तरह साख्यदर्शन मे अप्राकृत आत्मतत्त्व की भूमिका पहली ही होती तो उसमे भी ज्ञान, सुख-दुःखादि ये गुण आत्मा के ही माने जाते और उसी प्रकार से प्राकृत भाग से अप्राकृत आत्मा का विलक्षणत्व बताया जाता तथा उन गुणो को प्राकृत अन्त करण के मानने को आवश्यकता नहीं रहती। अव्यक्त प्रकृति यही पुरुष या चेतन है ऐसा जब माना जाने लगा तब उस भूमिका के सामने भी प्रश्न हुआ कि चाहे व्यक्त की अपेक्षा अव्यक्त का स्थान ऊँचा हो, परन्तु अन्त मे तो वह भी व्यक्त का कारण होने से व्यक्त कोटि का अर्थात् भौतिक या जड ही है और यदि ऐसा हो तो पुरुष, आत्मा या चेतन भी भौतिक या जड ही सिद्ध होता है । 'मेरा अभिप्राय यह है कि लो० तिलक के द्वारा की हुई व्याख्या ठीक नहीं है । 'कूटस्थोऽक्षर उच्यते' इसमें कूटस्थ अक्षररूप से साख्य समत जीवात्मा ही लेना चाहिए, न कि प्रकृति, क्योकि प्रकृति कूटस्थ नहीं मानी जाती है, और पुरुष ही फूटस्थ माना जाता है। प्रकृति का समावेश 'क्षर सर्वाणि भूतानि' इस क्षर भाग में होता है, क्योकि वह अक्षर होने पर भी कार्यरूप से क्षर भी है। ऐसा अर्थ करने पर गीता के प्रस्तुत (१५ १६, १७) त्रिविधि पुरुष वर्णन में सेश्वर साख्य को चारो भूमिकाओं का समावेश हो जाताहै। जब कि तिलक की व्याख्यामानने पर जीवात्मा कासनह उस वर्णन में रह जाताहै। गोताकार प्रकृति का सग्रह करे और जीवात्माको छोड दे, यह नहीं बन सकता। 'History of Indian philosophy, p 217 महाभारत, शातिपर्व, अध्याय ३१८ 'शारीरस्थानम् । प्रथम अध्याय ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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