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________________ प्रेमी-अभिनवन-प्रथ (५) व्याख्यानग्रन्य --- (४३६६ ) इन रचनाओ में ग्रन्थो की व्याख्या या टीका होती थी । (क) सोमयाग तथा अनेक यज्ञो की व्यास्या (४ ३ ६८) । (ख) ऋषि के द्वारा व्याख्यात अध्याय ( ४ ३ ६९ ) काशिकाकार ने वसिष्ठ तथा विश्वामित्र द्वारा व्याख्यात अध्यायो के नाम दिये है । 1 ३७६ (ग) पौरोडाश तथा पुरोडाश विषयक व्याख्यान ( ४ ३ ७० ) । (घ) छन्दस् की व्याख्या जिन्हे 'छन्दस्य ' तथा 'छान्दस ' कहते थे (४ ३ ७१) । (ड) ब्राह्मण, प्रथम, अध्वर, ऋच्, पुरश्चरण, नाम तथा आख्यात के व्याख्यान ग्रन्थ ( ४ ३ ७२ ) । (च) 'ऋगयन' नामक ग्रन्थ की व्याख्या जिसे 'आर्गायन' कहा गया है ( ४ ३ ७३) । इस गण में काशिकाकार ने न्याय, उपनिषद्, शिक्षा आदि अनेक ग्रन्थो का उल्लेख किया है । इन ग्रन्थो के नामोल्लेख के अतिरिक्त पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती व्याकरण रचयिताओ के नाम तथा मत स्थान स्थान पर उल्लिखित किये है। पाणिनि की अष्टाध्यायी मे प्रापिशलि (६ १९२), काश्यप (१, २, २५), गार्ग्य ( ८ ३ २०), गालव ( ७ १७४), चाक्रवर्मण (६।१।१३०), भारद्वाज ( ७१२ ६७), शाकटायन ( ३४१११ ) शाकल्य ( १|१|१६), सेनक ( ५/४१ ११२ ), स्फोटायन ( ६।१।१२३ ) --- --इन दम वैयाकरणो की मम्मतियाँ उल्लिखित है । ' यास्कादिभ्यो गोत्रे' मे निरुक्तकार 'यास्क' का भी नाम दिया गया है। इनमें ऋग्वेद प्रतिशास्य के रचयिता गाकल्प का नाम प्रति प्रसिद्ध है । अन्य ग्रन्थकारो के वारे में हमे कुछ भी ज्ञात नही है । वार्तिककार कात्यायन ने भी 'पौष्करसादि' नामक व्याकरण के प्राचार्य का उल्लेख किया है (चयो द्वितीया शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम्) । पतञ्जलि ने भी अपने महाभाष्य मे भारद्वाजीय ( ३ १ ८१ ), शौनग, कुणरवादव, सौर्य भागवत तथा कुणि का उल्लेख किया है, परन्तु इन सबसे अधिक महत्त्व की वाती का पता काशिका मे लगता हूं। ४ २ ६५ के ऊपर काशिका वृत्ति से 'व्याघ्रपद' तथा 'काशकृत्स्न' नामक व्याकरण के प्राचार्यो का पता लगता है । व्याघ्रपद ने सूत्रों मे ही अपना गन्थ लिखा था, जो दस श्रध्यायो का था। काशकृत्स्न का नाम (४ ३ ११५ ) की वृत्ति मे उपज्ञात के उदाहरण मे उल्लिखित है । इन्होने भी सूत्र में ही व्याकरणग्रन्थ रचा था, जो तीन अध्यायो मे समाप्त हुआ था । (पाणिनीयमष्टक' सूत्र तदधीते अष्टका पाणिनीया, दगका वैयाघ्रपदीया त्रिका कामकृत्स्ना ) । छन्द शास्त्र की भी विशेष उन्नति का पता सूत्रो से लगता है । ( ३३ ३४) में 'विप्टार' शब्द की सिद्धि छन्द के नाम के अर्थ में की गई है। काशिकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि सूत्र के छन्दोनाम मे मत्र -- ब्राह्मण का अथ नही है, बल्कि गायत्री आदि विशेष छन्दो से हैं'। उन्होने विष्टार पक्ति तथा विष्टार बृहती का नाम उदाहरण के लिए दिया है । अष्टाध्यायी तथा उसके व्याख्याग्रन्थो के अध्ययन करने से प्राचीन संस्कृत साहित्य के विषय मे अनेक ज्ञातव्य बातें जानी जा सकती है। यहाँ केवल पाणिनि के द्वारा निर्दिष्ट साहित्य का सामान्य -- परिचय मात्र दिया गया। 1 काशी ] 'इस उदाहरण में 'श्रष्टक सूत्रम्' से प्राशय आठ सूत्रों का नहीं है बल्कि 'आठ श्रध्यायो में रचे गये सूत्रो से है ।' भट्टोजिदीक्षित द्वारा की गई 'अष्टौ अध्याया परिमाणमस्य तदष्टक पाणिने सूत्रम्' अष्टक शब्द की व्युत्पत्ति से उक्त सिद्धान्त की पुष्टि होती है । सख्याया सज्ञा सघसूत्राध्ययनेषु (५२११५८ ) के अधिकार में सख्याया प्रतिशदन्ताया कन् ( ५३११२२) से अष्ट शब्द से कन् प्रत्यय करने पर 'अष्टक' निष्पन्न हुआ है । श्रतएव काशिका के उदाहरण से यही जान पडता है कि व्याघ्रपद का सूत्रप्रन्य दस श्रध्यायों में तथा 'काशकृत्स्न' का तीन अध्यायो में था । इनसे सूत्रो की सख्या समझना भूल हैं । 'वृत्तमन्त्र छन्दो गृह्यते, यत्र गायत्रपादयो विशेषा । न मन्त्र ब्राह्मणेनाम ग्रहणात् । काशिका ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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