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________________ जैन - मान्यता में धर्म का श्रादि समय और उसकी मर्यादा ३५७ स्वीकार किया गया है, इसलिए उभय मान्यताओ मे ( जैन और उक्त जैनेतर मान्यताओ में ) कल्पो की अनन्तता समान रूप से मान ली गई है । जैन मान्यता मे प्रत्येक कल्प के उत्सर्पिणी काल श्रीर अवसर्पिणी काल को उत्सर्पण और श्रवसपण के खड करके निम्नलिखित छह-हछ विभागो में विभक्त कर दिया गया है -- (१) दु षम' -दुषमा ( अत्यन्त दुखमय काल) (२) दुपमा' (साधारण दुखमय काल ) ३ –दु षम -सुषमा' ( दुख प्रधान सुखमय काल ) ४ - सुषम - दु षमा' (सुखप्रधान दुखमय काल ) ५ – मुषमा' (साधारण सुखमय काल) और ६ - सुषम - सुषमा' ( श्रत्यन्त सुखमय काल ) । ये छह विभाग उत्सर्पिणी कालके तथा इनके ठीक विपरीत क्रम को लेकर अर्थात् १ - सुषमा - सुषमा' (अत्यन्त सुखमय काल) २ – सुषमा' (साधारण सुखमय काल ) ३ - सुषम-दुषमा ( सुखप्रवान दुखमय काल ) ४ – दुषमासुषमा" (दुख प्रधान सुखमय काल ) ५ दुपमा" (साधारण दुखमय काल) और ६ - दु षम दु षमा " ( अत्यन्त दुखमय काल ) ये छह विभाग अवसर्पिणी काल के स्वीकार किये गये है । १० तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य की गति के दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की ओर होने वाले परिवर्तन के आधार पर स्वीकृत वर्ष के उत्तरायण और दक्षिणायन विभाग गतिक्रम के अनुसार तीन-तीन ऋतु में विभक्त होकर सतत चालू रहते हैं उसी प्रकार एक दूसरे से बिलकुल उलटे पूर्वोक्त उत्मर्पण और श्रवसर्पण के आधार 'इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । 'इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । , ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । * दो कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । " तीन कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । 'चार कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । 'श्रवसर्पिणी काल के समाप्त हो जाने पर जब उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है उस समय का यह वर्णन है तत्तो पविसदि रम्मो कालो उस्सप्पिणि त्ति विक्वादो । पढ़मो इदुस्समो दुइज्जन दुस्समा णामा ॥ ॥ १५५५ ॥ दुस्समसुसमो तदिश्रो चउत्थश्रो सुसमदुस्समो णाम । पचमत्र तह सुसमो जणप्पियो सुसमसुसमन छट्ठो ॥१५५६ ॥ ७ ८ चार कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । ་ 'तीन कोटी कोटी सागरोपम समय प्रमाण । (तिलोयपण्णत्ती चौथा महा अधिकार ) "दो कोटी कोटी सागरोपम समय प्रमाण । "व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोटी कोटी सागरोपम समय प्रमाण । "इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । "इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । " द्विरुक्तसुषमाऽऽद्याऽऽसीत् द्वितीया सुषमा मता । सुषमा दु.षमान्तान्या सुषमान्ता च दुषमा ॥१७॥ पञ्चमी दुषमा ज्ञेया समा षष्ठ्चतिदुषमा । भेदा इमेऽवसर्पिण्या उत्सर्पिण्या विपर्यया ॥ १८ ॥ प्रादि पुराण पर्व ३
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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