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________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३४७ । उपनिपदो मे श्रात्मा के चार स्तर' बतलाये है -- शरीरचैतन्य, स्वप्नचैतन्य, सुपुप्तिचैतन्य और शुद्धचैतन्य | इनमे से प्रारम्भ के तीन चैतन्यो में आत्मा की उपलब्धि न होकर शुद्धचैतन्य में उनकी उपलब्धि बतलाई है, किन्तु वहाँ म शुद्धचैतन्य का विशेष स्पष्टीकरण नही मिलता । उपनिपदो मे ब्रह्मतत्त्व की भी पर्यालोचना की गई है । वहाँ इसके दो रूप बतलाये है - सगुणब्रह्म और निर्गुणब्रह्म । सगुणब्रह्म का परिचय देते हुए लिखा है कि ब्रह्म' सत्य, ज्ञान तथा अनन्तरूप है तथा वह विज्ञान श्रीर श्रानन्दमय है । निर्गुणब्रह्म नेति पदवाच्य वतलाया है । नैयायिक और वैशेषिको की मान्यता है कि श्रात्मा नित्य है और उसमे बुद्धि, सुख, दुस, इच्छा, द्वेप आदि विशेष गुण निवास करते है । मुक्तावस्था में उसके ये गुण नष्ट हो जाते हैं सास्य ग्रात्मा को सर्वथा नित्य श्रीर भोक्ता मानते है । बौद्ध श्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता को ही स्वीकार नही करते। वे उसे नामरूपात्मक मानते हैं । नामम्प मे वेदना, सज्ञा, सस्कार, विज्ञान और रूप लिये जाते हैं । उनके मत से श्रात्मा इन पाँचो का पुञ्जमात्र है । इस प्रकार हम देखते है कि ज्ञान और दर्शन आत्मा का स्वभाव है । उसे किसी ने स्वीकार नही किया, किन्तु जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही श्रात्मा को ज्ञायक माना है । उसका मत है कि ज्ञान और दर्शन श्रात्मा के अनपायी धर्म है— उनका कभी भी नाग नही होता । जैन-धर्म में जीव के दो प्रकार के गुण माने है -- अनुजीवीगुण और प्रतिजीवीगुण । जिनसे जीव का जीवन कायम रहता है और जो उसे छोड़ कर अन्यत्र नही पाये जाते हैं, वे श्रनुजीवीगुण है । चेतना की चेतनता इन्ही गुणो मे है । जिनसे जीव का जीवन कायम नहीं हैं, किन्तु जो जीव को छोड़ कर अन्य द्रव्यो मे भी पाये जाते हैं वे प्रतिजीवीगुण है । इन श्रनुजीवी गुणी में ज्ञान और दर्शन मुख्य है । यही कारण है कि प्रारम्भ से सभी शास्त्रकारो ने जीव को ज्ञान दर्शनस्वम्प मानने पर अधिक जोर दिया है। नियमसार' में बतलाया है कि जीव उपयोगमयी है । उपयोग के दो भेद है— ज्ञान श्रीर दर्शन । ज्ञान के भी दो भेद है— स्वभाव ज्ञान और विभावज्ञान । इन्द्रियातीत और असहाय ऐसे केवलज्ञान को स्वभावज्ञान कहते हैं और शेष मति श्रादि विभावज्ञान है । समयप्राभृत मे वतलाया है कि जो नाघु मोह का त्याग करके ग्रात्मा को ज्ञानम्वरूप मानता है वही साधु परमार्थ का जानकार है। कार्मिक ग्रन्थो में कर्म के आठ भेद किये है, उनमें ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो स्वतन्त्र कर्म है । इससे भी जीव के ज्ञान-दर्शन स्वभाव की सिद्धि होती है । इम प्रकार जब हम इम रहस्य को जान लेते हैं कि अन्य मत-मतान्तरो में जो श्रात्मा का स्वरूप स्वीकार किया गया है उनमे जैन धर्म की मान्यता अपनी एक विशेष मौलिकता को लिये हुए है तब हमें इस सत्य के समझने में देर नही लगती कि जैन परम्परा में केवल ज्ञानी को मव पदार्थों का जानने श्रीर देखने वाला क्यो माना गया है ? वन्धनमुक्त श्रात्मा की दो ही अवस्थाएँ हो सकती है । एक तो यह कि वह किसी को भी न जाने और न देखे और दूसरी यह कि वह सव को जाने और देखे । पहली अवस्था श्रात्मा को ज्ञान स्वभाव न मानने पर प्राप्त होती है । किन्तु तब यह प्रश्न होता है कि ममारी आत्मा के ज्ञान कैसे होता है ? मास्य इसका यह उत्तर देते हैं कि बुद्धि स्वभावत अचेतन है और उसके निमित्त मे जो अध्यवसाय और सुखादिक उत्पन्न होते हैं वे भी अचेतन है, परन्तु वुद्धि के समर्ग से पुरुष अपने को ज्ञानवान अनुभव करता है और बुद्धि अपने को चेतन ग्रनुभव करती है तथा नैयायिक और वैशेषिक इस प्रश्न का यह उत्तर देते हैं कि यद्यपि ज्ञान का निवास श्रात्मा में ही हैं किन्तु जीव के मुक्त होने पर वह उससे अलग हो जाता है । ये दोनो ही उत्तर पर्याप्त है । इनमे मूल प्रश्न का समाधान नही होता, क्योकि बुद्धि का श्रन्वय जिस प्रकार चेतन के साथ देखा जाता है, वैसा जड के साथ नही । दूसरी अवस्था आत्मा को ज्ञान स्वभाव ' भारतीय दर्शन पत्र ७५ भारतीय दर्शन पत्र ८० 1 गाथा १० व ११ * गाथा ३७
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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