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________________ स्यावाद और सप्तभगी ३३५ श्रुत' उपदेश या वाक्य तीन प्रकार का होता है, स्यावाद श्रुत, नयश्रुत, और मिथ्याश्रुत। ' स्याद्वादश्रुत-एक धर्म के द्वारा अनन्तधर्मात्मक वस्तु का बोध कराने वाले वाक्य को कहते है। यह वाक्य अनेक धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करता है। इसलिए इसे सकलादेश' भी कहते है और अनेक धर्मात्मक वस्तु का ज्ञाता ही ऐसे वाक्य का प्रयोग कर सकता है। इसलिए उसे प्रमाणवाक्य भी कहते है, क्योकि जैनदर्शन मे अनेक धर्मात्मक वस्तु का सच्चा ज्ञान ही प्रमाण कहा जाता है । नयश्रुत-अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध कराने वाले वाक्य को कहते है। इसे विकलादेश या नयवाक्य भी कहते है। ऐसे वाक्य के प्रयोग करने वाले वक्ता का ज्ञान 'नय' कहलाता है, क्योकि वस्तु के एकाशग्राही ज्ञान को नय कहते है। मिथ्याश्रुत-वस्तु मे किसी एक धर्म को मान कर, अन्य प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण करनेवाले वाक्य को कहते हैं। ऐसे वाक्य के प्रयोग करने वाले वक्ता का ज्ञान 'दुर्नय' कहलाता है। यहां प्रश्न हो सकता है कि क्या ज्ञान एकाशग्राही और शब्द अनेक धर्मात्मक वस्तु का वाचक हो सकता है ? विचार करने पर दोनो ही वाते असगत जान पडती है-न तो ज्ञान एकाशग्राही हो सकता है और न एक शब्द एक समय मे अनेक धर्मात्मक वस्तु का वाचक । प्रमाण और नय प्र०-अनेक धर्मात्मक वस्तु के ज्ञान को 'प्रमाण' कहते है और एक धर्म के ग्रहण करनेवाले ज्ञान को 'नय' कहते है। तव आप ज्ञान का एकाशग्राही होना कसे अस्वीकार करते है। ___ उ०-प्रमाण और नय की व्यवस्था सापेक्ष है। प्रमाण के दो भेद है-स्वार्थ और परार्थ । मतिज्ञान स्वार्थ प्रमाण है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते है। यथार्य में कोई भी इन्द्रियजन्य ज्ञान पूर्ण वस्तु को विषय नही कर सकता। चक्षू रूप के द्वारा वस्तु को जानती है, रसना रस के द्वारा और घ्राण गन्ध के द्वारा। फिर भी जैन दर्शन मे इन ज्ञानो को प्रमाण यानी अनेक धर्मात्मक वस्तु का ग्राही कहा जाता है। इसका कारण ज्ञाता की दृष्टि है। एक धर्म को जानते हुए भी ज्ञाता की दृष्टि, वस्तु के अन्य धर्मों की ओर से उदासीन नहीं हो जाती। कारण, बुद्धिमान ज्ञाता जानता है कि इन्द्रियो मे इतनी शक्ति नही है कि वे एक समय में वस्तु के अनेक धर्मों का प्रतिभासन करा सकें। यदि ज्ञाता इन्द्रियो की इस अशक्ति को ध्यान मे न रख कर इन्द्रिय वस्तु के जिस धर्म का बोध कराती है केवल उसी एक धर्म को पूर्ण वस्तु समझ लेता है तो उसका ज्ञान अप्रमाण कहा जाता है। जव ज्ञाता शब्दो के द्वारा दूसरो पर अपने ज्ञान को प्रकट करने के लिए तत्पर होता है तब उसका वह शब्दोन्मुख अस्पष्ट ज्ञान स्वार्थ श्रुतप्रमाण कहा जाता है और ज्ञाता जो वचन बोलता है वे वचन परार्थश्रुत कहे जाते है। श्रुतप्रमाण के ही भेद नय' कहलाते है। "इह त्रिविध श्रुत-मिथ्याश्रुत, नयश्रुत, स्याद्वादश्रुतम्"-न्यायावतार टी०, पृ० ६३ २ "सम्पूर्णार्थविनिश्चापि स्याद्वादश्रुतमुच्यते"।-न्यायावतार, कारि० ३० "स्याद्वाद सकलादेश'-लघीयस्त्रय। "सकलादेश प्रमाणवाक्यम्'। -श्लोकवातिक पृ० १८१ ५'अर्थस्यानेकरूपस्य धी प्रमाण'।-अष्टशती। "विकलादेशो नयवाक्यम्'। लो० वा०, पृ० १३७ । "जैनदर्शन में इन्द्रियजन्यज्ञान को अस्पष्ट कहा जाता है। "प्राङनामयोजनाच्छेष श्रुत शब्दानुयोजनात्"। -लघीयस्त्रय "न केवल नामयोजनात्पूर्व यदस्पष्टज्ञानमुपजायते तदेव श्रुत, किन्तु शब्दानुयोजनाच्च यदुपजायते तदपि सगृहीत भवति"।ज्यायफमुदचन्द्रोदय।। "श्रुत स्वार्थ भवति परार्थ च , ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थ, तद्भवा नया"। सर्वार्थसिद्धि
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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