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________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन अकलक की इस व्यवस्था का मूलाधार आगम और तत्त्वार्थसूत्र है । आगमो में मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान बताये गये है । इनमें से प्रथम के दो इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से ही उत्पन्न हो सकते हैं और अन्तिम तीनो की मात्र आत्मसापेक्ष ही उत्पत्ति है । उसमें इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नही । अतएव सर्वप्रथम प्राचीन काल में श्रागम में इन पाँचो ज्ञानो का वर्गीकरण निम्न प्रकार हुआ जिसका अनुसरण तत्त्वार्थ और पचास्तिकाय में भी हुआ देखा जाता है प्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ज्ञान T अवधि मन पर्यय केवल मति श्रुत किन्तु बाद में इस विभागीकरण में परिवर्तन भी करना पडा । उसका कारण लोकानुसरण ही मालूम पडता है, क्योकि लोक मे प्राय सभी दार्शनिक इन्द्रियो से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ही मानते थे । अतएव जैनाचार्यों आगमकाल में ही ज्ञान के वर्गीकरण में थोडा परिवर्तन लोकानुकूल होने के लिए किया, इसका पता हमें नन्दीसूत्र से चलता है श्रोत्र० घ्राण० जिह्वा० स्पर्शन० चक्षु० (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ) अवधि ० ज्ञान नोइन्द्रियप्रत्यक्ष श्रुतनिश्रित (सविकल्पक प्रत्यक्ष ) मन ० परोक्ष केवल ० मति परोक्ष ३१५ श्रुतनिश्रित । श्रुत उत्पत्तिकी वैनयिकी कार्यिकी पारिणामिकी इससे स्पष्ट है कि नन्दीकार ने इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो में रक्खा । ज्ञान द्विरूप तो हो नही सकता अतएव जिनभद्र ने स्पष्टीकरण किया है कि इन्द्रिय ज्ञान को साव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान करके नन्दीकार ने उसे प्रत्यक्ष में भी गिना है वस्तुत वह परोक्ष ही है । नन्दीकार से पहले भी इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणान्तर्गत करने की प्रथा चल पडी थी इसका पता नन्दीसूत्र से भी प्राचीन ऐसे अनुयोगद्वारसूत्र से चलता है— नन्दीकार ने तो उसीका अनुकरण मात्र किया है ऐसा जान पडता है। अनुयोग में प्रमाण विवेचन के प्रसग में निम्न प्रकार से वर्गीकरण है
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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