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________________ ३१० प्रेमी-अभिनदन-प्रय दृष्टि में स्थिर रह कर भी उनका दर्शन सम्यग्दर्शन है, चाहे वह पूर्ण न भी हो। पूर्ण सम्यग्दर्शन तो सभी उपयुक्त दृष्टियो के स्वीकार से ही हो सकता है। किन्तु सभी दार्शनिक अपना दृष्टिराग छोड नहीं सकते। अतएव वे मिथ्या है और उन्ही की बात को लेकर चलने वाला अनेकान्तवाद मिथ्या न होकर सम्यक हो जाता है। क्योकि अनेकान्तवाद सर्वदर्शनो का जो तथ्याश है, जो अश युक्तिसिद्ध है उसे स्वीकार करता है और तत्त्व के पूर्ण दर्शन में उस अश को भी यथास्थान सनिविष्ट करता है। सिद्धसेन का तो यहां तक कहना है कि किसी एक दृष्टि की मुख्यता यदि मानी जाय तो सर्वदर्शनो का प्रयोजन जो मोक्ष है वही नहीं घट सकेगा। अतएव दार्शनिको को अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए भी अनेकान्तवाद का आश्रयण करना चाहिए और दृष्टिमोह से दूर रहना चाहिए। महामूल्यवान् मुक्तामणियो को भी जब तक किसी एक सूत्र में बाँधा न जाय तव तक गले का हार नहीं बन सकता है। उनमें समन्वय की कमी है। अतएव उनका खास उपयोग भी नहीं। किन्तु वे ही मणियाँ जब सूत्रबद्ध हो जाती है, उनमें समन्वय हो जाता है तव उनका पार्थक्य होते हुए भी एक उपयुक्त चीज़ बन जाती है। इसी दृष्टान्त के बल से सिद्धमेन ने सभी दार्शनिको को अपनी-अपनी दृष्टि में समन्वय की भावना रखने का आदेश दिया है। और कहा है कि यदि ऐसा समन्वय हो तभी दर्शन सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है अन्यथा नहीं। कार्यकारण के भेदाभेद को लेकर दार्शनिको में नाना विवाद चलते थे। कार्य और कारण का एकान्त भेद ही है, ऐसा न्याय-वैशेषिक मत है । सास्य का मत है कि कार्य कारणरूप ही है। अद्वैतवादियो का मत है कि ससार मे दृश्यमान कार्यकारणभाव मिथ्या है, किन्तु एक द्रव्य-अद्वैत ब्रह्म ही सत् है। इन सभी वादियो को सिद्धसेन ने एक ही बात कही है कि यदि वे परस्पर समन्वय न स्थापित कर सके तो उनका वाद मिथ्या ही होगा। वस्तुत अभेदगामी दृष्टि से विचार करने पर कार्य-कारण मे अभेद है, और भेदगामी दृष्टि से देखने पर भेद है, अतएव एकान्त को परित्याग करके कार्य-कारण में भेदाभेद मानना चाहिए। भगवान महावीर ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किसी वस्तु पर विचार करना सिखाया था, यह कहा जा चुका है। इसी को मूलाधार वना कर किसी भी वस्तु मे स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सत् और परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से असत् इत्यादि सप्तभगो की योजनास्प स्याद्वाद का प्रतिपादन भी सिद्धसेन ने विशदरूप से किया है। सदसत् की सप्तभगी की तरह एकानेक, नित्यानित्य, भेदाभेद इत्यादि दार्शनिकवादो के विषय में भी द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि को मूलाधार बना कर स्याद्वाद दृष्टि का प्रयोग करने का सिद्धसेन ने सूचन किया वौद्धो ने वस्तु को विशेषरूप ही माना , अद्वैतवादियो ने सामान्यरूप ही माना और वैशेषिको ने सामान्य और विशेप को स्वतन्त्र और आधारभूत वस्तु से अत्यन्त भिन्न ही माना। दार्शनिको के इस विवाद को भी सिद्धसेन ने द्रव्याथिक और पर्यायाथिक का झगडा ही कहा और वस्तु तत्त्व को सामान्य-विशेषात्मक सिद्ध करके ममन्वय किया। बौद्ध ने वस्तु को गुण रूप हीष्माना, गुणभिन्न कोई द्रव्य माना ही नहीं। नैयायिको ने द्रव्य और गुण का भेद ही माना। तव सिद्धसेन ने कहा कि एक ही वस्तु सम्बन्ध के भेद से नाना रूप धारण करती है अर्थात् जव वह चक्षुरिन्द्रिय का विषय होती है तव रूप कही जाती है और रसनेन्द्रिय का विषय होती है तव रस कही जाती है, जैन कि एक ही पुरुष सम्बन्ध के भेद से पिता, मामा आदि व्यपदेशो को धारण करता है। इस प्रकार गुण और द्रव्य का अभेद सिह करके भीएकान्ताभेद नही है ऐसा स्थिर करने के लिए फिर कहा कि वस्तु मे विशेषताएं केवल परसम्बन्ध कृत है यह वात नहीं है। उसमे तत्तद्रूप से स्वपरिणति भी मानना आवश्यक है। इन परिणामो मे भेद विना मान व्यवपदेशभेद भी सम्भव नहीं। अतएव द्रव्य और गुण का भेद ही या अभेद ही है, यह वात नही, किन्तु भेदाभेद है। यही उक्त वादो का समन्वय है। सिद्धसेन तर्कवादी अवश्य थे, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि तर्क को वे अप्रतिहतगति समझते थे।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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