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________________ ३०८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ ज्ञेयमीमासा "ज्ञेयमीमासा मे मुख्य मोलह बात आती है जो इस प्रकार है-दूसरे अध्याय में-१-जीवतत्त्व का स्वरूप। २-ससारी जीव के भेद। ३---इन्द्रिय के भेद-प्रभेद, उनके नाम, उनके विषय और जीवराशि में इन्द्रियो का विभाजन। ४-मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति । ५-जन्मो के और उनके स्थानो के भेद तथा उनका जाति की दृष्टि से विभाग। ६-शरीर के भेद, उनके तारतम्य, उनके स्वामी और एक साथ उनका सम्भव। ७--जातियो का लिगविभाग और न टूट सके ऐसे आयुष्य को भोगने वालो का निर्देश । तीसरे और चौथे अध्याय में-८-अधोलोक के विभाग, उसमें वसने वाले नारकजीव और उनकी दशा तथा जीवनमर्यादा वगैरह। ६-द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि द्वारा मध्यलोक का भौगोलिक वर्णन, तथा उसमें बसने वाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का जीवनकाल। १०-देवो की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिमंडल द्वारा खगोल का वर्णन। पांचवे अध्याय मे-११-द्रव्य के भेद, उनका परस्पर साधर्म्य-वैधर्म्य, उनका स्थितिक्षेत्र और प्रत्येक का कार्य। १२पुद्गल का स्वरूप, उनके भेद और उमकी उत्पत्ति के कारण। १३-सत् और नित्य का महेतुक स्वरूप । १४-पौद्गलिकबन्ध की योग्यता और अयोग्यता। १५--द्रव्यसामान्य का लक्षण, काल को द्रव्य मानने वाला मतान्तर और उसकी दृष्टि से काल का स्वरूप। १६-गुण और परिणाम के लक्षण और परिणाम के भेद । चारित्र मीमासा "चारित्रमीमासा की मुख्य ग्यारह वाते है-छठे अध्याय मे-१-पासव का स्वरूप, उसके भेद और किसकिस प्रास्रवसेवन से कौन-कौन कर्म बंधते है उसका वर्णन है। सातवें अध्याय में-२-व्रत का स्वरूप व्रत लेने वाले अधिकारियो के भेद और व्रत की स्थिरता के मार्ग। ३-हिंसा आदि दोषो का स्वरूप। ४-व्रत में सम्भवित दोष। ५-दान का स्वरूप और उसके तारतम्य के हेतु। आठवे अध्याय मे-६-कर्मवन्धन के मूल हेतु और कर्मवन्धन के भेद। नववे अध्याय में-७-सवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेदप्रभेद। ५-निर्जरा और उसके उपाय। ६-जुदे-जुदे अधिकार वाले साधक और उनकी मर्यादा का तारतम्य । दसवे अध्याय में-१०-केवल ज्ञान के हेतु और मोक्ष का स्वरूप । ११-मुक्ति प्राप्त करने वाले आत्मा की किस रीति से कहाँ गति होती है उसका वर्णन।" इस सक्षिप्त सूची से यह पता लग जायगा कि तत्कालीन ज्ञानविज्ञान की एक भी शाखा अछूती नही रही है । तत्त्वविद्या, आध्यात्मिकविद्या, तर्कशास्त्र, मानसशास्त्र, भूगोल-खगोल, भौतिक विज्ञान, रसायनविज्ञान, भूस्तरविद्या, जीवविद्या आदि सभी के विषय मे उमास्वाति ने तत्कालीन जैन मन्तव्य का सग्रह किया है। यही कारण है कि टीकाकारो ने अपनी दार्शनिक विचारधारा को बहाने के लिए इसी ग्रन्थ को चुना है और फलत यह एक जैनदर्शन का अमूल्य रत्न सिद्ध हुआ है। ___ इस प्रकार ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाप्रो को लेकर तत्त्वार्थ और उसकी टीकाओ मे विवेचना होने से किसी एक दार्शनिक मुद्दे पर सक्षेप में चर्चा का होना उसमे अनिवार्य है अतएव जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्त अनेकान्तवाद और उसीसे सम्बन्ध रखने वाले प्रमाण और नय का स्वतन्त्र विस्तृत विवेचन उसमे सम्भव न होने से जैन आचार्यों ने इन विषयो पर स्वतन्त्र प्रकरण ग्रन्थ भी लिखना शुरू किया। (२) अनेकान्त स्थापन युग सिद्धसेन और समन्तभद्र दार्शनिक क्षेत्र में जब से नागार्जुन ने पदार्पण किया है तब से सभी भारतीय दर्शनो में नव जागरण हुआ है। मभी दार्शनिको ने अपने-अपने दर्शन को तर्क के वल से सुसगत करने का प्रयत्न किया है। जो बातें केवल मान्यता
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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