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________________ 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' और उसके मालिक स्व० हेमचन्द्र मोदी यह लेख बहुत ही सुन्दर और रोचक है । 'पिता-पुत्र के सम्बन्ध के होते हुए भी लेखक ने कहीं अपने को सत्य से बहकने नहीं दिया है। इसमें सर्वत्र हेमचन्द्र जी की पैनी बुद्धि की छाप है। जान पडता है कि सत्य के राजमार्ग पर चलने की उनकी एक प्रादत-सी बन गई थी। विशेष घटनाओ का उल्लेख करते हुए उनके पीछे जो सामान्य सत्य है उसकी ओर इस लेख में कई स्थानों पर बहुमूल्य सुझाव दिये गए है। हर्ष की बात है कि श्री नाथूराम जी का ऐसी सद्विवेकिनी शैली से लिखा हुआ चरित्र उपलब्ध हो सका। स्व० हेमचन्द्र के सिवा सम्भवत इस कार्य को कोई दूसरा इतने अच्छे ढग से पूरा न उतार सकता था। -वासुदेवशरण अग्रवाल] वम्बई का 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' हिन्दी में एक ऐसी प्रकाशन-सस्था रही है, जिसने लोगो का बहुत-कुछ ध्यान आकर्षित किया है । इसके वारे में ज्यादा जानने के लिए लोग उत्सुक भी रहे है, पर इस विज्ञापनवाज़ी के ज़माने में न जाने क्यो इसके सचालक हमेगा आत्म-विज्ञापन की ओर इस तरह उपेक्षा दिखलाते रहे है कि लोगो की उत्सुकता खुराक के अभाव मे अभिज्ञता के स्प मे नही पलट पाई। कोशिश करने पर लोग इसके बारे मे इसके ' नाम के अलावा इतना ही जान पाये है कि इसके मालिक श्री नाथूराम प्रेमी नामक कोई व्यक्ति विशेष है । हाँ, कोई आठ-दस साल पहले व्यक्तिगत चिट्ठियो मे सवाल-पर-सवाल पूछकर पूज्य प० वनारसीदासजी चतुर्वेदी कुछ जानकारी पा गये थे, जिसे उन्होने 'विशाल भारत' मे छाप दिया था। पर इसके द्वारा लोगो की उत्सुकता वढी थी, घटी नही थी। मै पिताजी को न जाने कब से 'दादा' कहता आया हूँ और मेरी देखादेखी निकट परिचय मे आने वाले हिन्दी के बहुत से लेखक भी उन्हे 'दादा' कहने और पत्रो मे लिखने लगे है। हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' के साथ वे इस तरह मश्लिष्ट है कि जो लोग थोडे भी परिचय में आये है, वे दोनो में भेद नही कर पाते। इतना ही नहीं, मेरा कई साल का अनुभव है कि वे स्वय भी अपने आपको चेप्टा करने पर भी 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' से अलग नहीं कर पाते । अपने कार्य से इतना अधिक एकात्म्य दुनिया में बहुत कम लोग अनुभव करते है। यह एकात्म्य यहाँ तक रहा है कि कभीकभी मुझे यह भासने लगता है कि जिस पितृ-स्नेह का मै हकदार था, उसका एक बहुत बडा हिस्सा इमने चुरा लिया है और मुझे याद है कि मेरी स्वर्गीया माँ भी अनेक वार इसमे अपनी मौत का दर्शन करती रही है, परन्तु मेरे निकट - हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' कोई चीज़ नही है। मेरे निकट तो वस मेरे दादा है। मै यहाँ अपने दादा का ही परिचय दूंगा, क्योकि मेरे लिए वे ही सब कुछ है। मेरे निकट 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' है तो केवल उनके एक प्रतीक के रूप में। मुझे • विश्वास है कि पाठक भी जड 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' की अपेक्षा चेतन 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' को ही जानने के लिए ज्यादा उत्सुक होगे। पर इसका मतलब यह नहीं है कि दादा मुझे चाहते नही है या मेरी माता के प्रति उनका व्यवहार उचित नही था। सच पूछो तो दादा मेरी माँ को चाहते नहीं थे, उनकी भक्ति करते थे। जव वे किसी चीज़ के लिए कहती थी तव वह मांग उन्हे इतनी तुच्छ प्रतीत होती थी कि उनके ख्याल से उन जैसी देवी को शोभा न देती थी। उन्होने इस वात का ख्याल नही किया कि एक देवी के शरीर मे भी मनुष्य का हृदय रह सकता है। उनकी मृत्यु के आठ साल वाद आज भी जव वे उनका स्मरण करते है तब उनका हृदय दुख से भर उठता है । आप कहेगे, “यह तुमने अच्छा झगडा लगाया। 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' मे तुम्हारी मां का क्या सम्वन्ध ?" पर मेरा विश्वास है कि दादा ने जो
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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