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________________ जैन तत्त्वज्ञान ३०१ उपासना का ध्येय है। जिस प्रकार याकर वंदान्त मानता है कि जीव म्वय ही ब्रह्म है, उसी प्रकार जनदर्शन कहता है कि जीव स्वर ही ईश्वर या परमात्मा है। वेदान्तदर्शनानुसार जीव का ब्रह्मभाव अविद्या मे आवृत है और अविद्या के दूर होते ही वह अनुभव में आता है, उसी प्रकार जनदर्शनानुनार जीव का परमात्मभाव कर्म में आवृत है और उम आवरण के दूर होते ही वह पूर्णत्प ने अनुभव में आता है। इस सम्बन्ध में वस्तुन जैन और वेदान्त के बीच में व्यक्तिवहुल के सिवाय कुछ भी भेद नहीं है। (ख) जनशास्त्र में जिन मात तत्त्वो का उल्लेख है उनमें से मूल जीव और अजीव इन दो तत्त्वो की ऊपर तुलना की है। अब वस्नुत पांच में मे चार ही तत्त्व अवगिप्ट रहते है। ये चार तत्व जीवनगोवन मे मम्बन्व रखने वाले अर्थात् आध्यात्मिक विकासक्रम ने सम्बन्ध न्वने वाले हैं, जिनको चारित्रीय तत्त्व भी कह सकते है। वन्य, पाचव, मवर और मोक्ष ये चार तत्त्व हैं। ये तत्त्व बौद्धशास्त्रो में क्रमग दुख, दुखहेतु, निर्वाणमार्ग और निर्वाण इन चार आर्यमन्यो के नाम से वर्णित है। मान्य और योगशास्त्र में इनको ही हेय, हेयहेतु, हानोपाय और हान कह करके इनका चतुह म्प से वर्णन है। न्याय और वैगेषिकदर्शन में भी इसी वस्तु का मसार, मिथ्यानान, नत्त्वनान और अपवर्ग के नाम ने वर्णन है। वेदान्नदर्शन में ममार, अविद्या, ब्रह्मभावना और ब्रह्मसाक्षात्कार के नाम मे यही वस्तु दिवलाई गई है। जनदर्शन में वहिरात्मा, अन्नगत्मा और परमात्मा की नीन मक्षिप्त भूमिकाओ का कुछ विम्नार मे चौदह भूमिकाओं के रूप में भी वर्णन किया गया है, जो जैन परम्परा में गुणम्यान के नाम ने प्रसिद्ध है। योगवागिप्ठ जैसे वेदान्न के ग्रन्यो में भी मात अन्नान की और मान नान की चौदह आत्मिक भूमिकाओ का वर्णन है। साख्य योगदर्शन की क्षिप्त, मूट, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्द ये पांच चिनभूमिकाएं भी इन्ही चौदह भूमिकाओं का मक्षिप्त वर्गीकरण मात्र है। वौद्धदर्शन में भी इसी आध्यात्मिक विकासक्रम को पृथग्जन, मोनापन्न आदि रूप मे पांच भूमिकामो में विभाजित करके वर्णन किया गया है । इस प्रकार जब हम सभी भारतीय दर्शनो में ममार में मोक्ष तक की स्थिति, उमके क्रम और उसके कारणों के विषय में एक मत और एक विचार पढत है तव प्रश्न होता है कि जब सनी दर्शनी के विचारों में मौलिक एकता है तब पन्य-पन्य के बीच में कभी भी मेल नहीं हो ऐसा और इतना अधिक भेद क्यो दिखाई देता है ? इमका उत्तर स्पष्ट है। पन्यो की भिन्नता में मुख्य दो वस्तुएं कारण है । तत्त्वज्ञान की भिन्नता और वाह्य आचार-विचार की भिन्नता। क्तिने ही पन्थ तो ऐसे भी है कि जिनके वाह्य आचार-विचार में भिन्नता होने के अतिरिक्त तत्त्वज्ञान की विचाग्नपणी में भी अमुक भेट होता है। जैसे कि वेदान्त, वौद्ध और जैन श्रादि पन्य । कितने ही पन्य या उनकी गान्वाएँ ऐसी भी होती है कि जिनकी तत्त्वज्ञान विषयक विचारसरणी में खाम भेद नही होता है। उनका भेट मुन्न्य रूप ने बाह्य प्राचार का अवलम्बन लेकर उपस्थित और पोपित होता है। उदाहरण के तौर पर जैनदर्शन की वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवामी इन तीन शाखायो को गिना मकते है। आत्मा को कोई एक माने या कोई अनेक माने, क्रोई ईम्वर को माने या कोई नहीं माने-इत्यादि तात्त्विक विचारणा का भेद बुद्धि के नग्नमभाव के ऊपर निर्भर है। इसी प्रकार वाह्य आचार और नियमो के भेद वुद्धि, रुचि नया परिस्थिति के भेट मे मे उत्पन्न होते है। कोई कागी जाकर गगा म्नान और विश्वनाथ के दर्शन में पवित्रता माने.कोई बद्धगया और मारनाथ जाकर बदन में कृतकृत्यता माने, कोई शत्रजय की यात्रा में सफलता माने, कोई मक्का और कोई जेम्मलेम जाकर धन्यता मान । इमी प्रकार काई एदादगी के तप-उपवाम को अति पवित्र गिनं, दूसरा कोई अष्टमी और चतुर्दशी के व्रन को महत्त्व प्रदान करे, कोई तप के ऊपर बहुत भार नहीं देकर के दान के पर भार दे, दूसरा कोई तप के ऊपर भी अधिक भार दे, इस प्रकार परम्परागत भिन्न-भिन्न मम्कारी का पोपण और विभेद का मानमिक वातावरण अनिवार्य होने मे वाद्याचार और प्रवत्ति का भेद कभी मिटने वाला नहीं है। भेद की उत्पादक और पापक इतनी अधिक वस्तुएं होने पर भी सत्य ऐमा है कि वह वस्तुत खडित नहीं होता है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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