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________________ जैन तत्त्वज्ञान प० सुखलाल सघवी व्याख्या विश्व के वाह्य और आन्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध मे तथा उसके सामान्य एव व्यापक नियमो के सम्बन्ध मे जो तात्त्विक दृष्टि से विचार किये जाते हैं उनका नाम तत्त्वज्ञान है। ऐसे विचार किसी एक ही देश, एक ही जाति या एक ही प्रजा मे उद्भूत होते है और क्रमश विकसित होते है, ऐसा नही है, परन्तु इस प्रकार का विचार करना यह मनुष्यत्व का विगिप्ट स्वरूप है । अतएव जल्दी या देरी में प्रत्येक देश में निवास करने वाली प्रत्येक प्रकार की मानव-प्रजा मे ये विचार अल्प या अधिक अश में उद्भूत होते है और वैसे विचार विभिन्न प्रजापो के पारस्परिक ससर्ग , के कारण और किसी समय विलकुल स्वतन्त्ररुप मे भी विशेष विकसित होते है तथा सामान्य भूमिका मे आगे बढ कर अनेक जुदे-जुदे प्रवाह रूप से फैलते है। पहले से आज तक मनुष्य-जाति ने भूखड के ऊपर जो तात्त्विक विचार किये है वे सव आज उपस्थित नही है तथा उन सब विचारो का क्रमिक इतिहास भी पूर्णरूप से हमारे सामने नही है। फिर भी इस समय इस विषय में जो कुछ सामग्री हमारे सामने है और इस विषय मे जो कुछ थोडा-बहुत हम जानते हैं, उस से इतना तो निर्विवाद रूप से कह सकते है कि तत्त्वचिन्तन की भिन्न-भिन्न और परस्परविरोधी दिखाई देने वाली चाहे जितनी धाराएँ हो, फिर भी इन सव विचार-धारामो का सामान्य स्वरूप एक है । और वह यह कि विश्व के वाह्य तथा आन्तरिक स्वरूप के सामान्य और व्यापक नियमो का रहस्य ढूढ निकालना। तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का मूल कोई एक मनुष्य पहले से ही पूर्ण नही होता, परन्तु वह वाल्य आदि विभिन्न अवस्थामो मे से गुजरने के साथ ही अपने अनुभवो को वढा करके क्रमश पूर्णता की दिशा में आगे बढता है । यही बात मनुष्य जाति के विपय में भी है। मनुष्यजाति की भी बाल्य आदि क्रमिक अवस्थाएँ अपेक्षा विशेष से होती है। उसका जीवन व्यक्ति के जीवन की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा और विशाल होता है । अतएव उसकी वाल्य आदि अवस्थाम्रो का ममय भी उतना ही अधिक लम्बा हो, यह स्वाभाविक है । मनुप्य जाति जव प्रकृति की गोद में आई और उमने पहले गह्य विश्व की ओर अाँख खोली तव उसके मागने अद्भुत और चमत्कारी वस्तुएँ तथा घटनाएँ उपस्थित हुई। एक ओर सूर्य, चन्द्र और अगणित तारामडल और दूसरी ओर समुद्र, पर्वत, विशाल नदीप्रवाह, मेघ गर्जनाएँ और विद्यतचमत्कारो ने उसका ध्यान आकर्षित किया। मनुष्य का मानस इन सव स्थूल पदार्थो के मूक्ष्म चिन्तन में प्रवृत्त हा और उसके हृदय मे इस सम्बन्ध मे अनेक प्रश्न उद्भूत हुए। जिस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क मे वाह्य विश्व के गढ तथा अतिसूक्ष्म स्वरूप के विषय मे और उसके सामान्य नियमो के विपय में विविध प्रश्न उत्पन्न हुए उमी प्रकार आन्तरिक विश्व के गूढ और अतिसूक्ष्म स्वरूप के विषय में भी उसके मन मे विविध प्रश्न उठे। इन प्रश्नो की उत्पत्ति ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का प्रथम सोपान है। ये प्रश्न चाहे जितने हो और कालक्रम मे उसमे से दूसरे मुख्य और उपप्रश्न भी चाहे जितने पैदा हो फिर भी उन सव प्रश्नो को सक्षेप में निम्नप्रकार से मकलित कर सकते है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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