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________________ मयुरा का जैन स्तूप और मूर्तियां २८३ वह शुभ मूर्ति जो चारो ओर ने देखी जा सके, कहलाती थीं। इन मूर्तियों में चारो दिशाओं मे एक तीर्थंकर की मूर्ति बनी हुई है। इन चौमुग्वी मूर्तियो में आदिनाथ, महावीर, सुपार्श्वनाथ अवय्य होते है । इस प्रकार की मूर्तियाँ मथुरा में कुषाण और गुप्त काल में बहुतायत मे वनती थी और उनके अनेको सुन्दर उदाहरण इस समय अजायबघर में प्रदर्शित है। किन्तु सभ्यता और गान्ति की यह दशा वहुत दिनो तक न टिक सकी और ईस्वी ४७५ के लगभग से उत्तरी भारत पर हूणो के भयानक आक्रमण होने लगे। इन अाक्रमणो मे मथुग की स्थापत्य कला को वडा धक्का लगा और वह फिर कभी उस पुराने चोटी के स्थान को प्राप्त नहीं कर सकी। अन ई० छठी शताब्दी के पश्चात् के जो नमूने हमें मिले है वे भोडे और महे है और उनमे पहिले की मी सजीवता नही है। इमी काल से मथुरा में श्वेताम्बर मप्रदाय का भी सिक्का जमा और विना कपडेवाली मूर्तियो में कपडे दिवाये जाने लगे। वेताम्बग्यिो की ही कृपा से इन मूर्तियों में पहिले-पहल राजसिंहासन, यक्ष, यक्षिणी, त्रिरत्र, गजेंद्र आदि दगांये गये, जो उत्तर गुप्त काल और उसके बाद की जैन मूर्तियो के विशेप लक्षण है। इन्ही के साथ-साथ मध्य काल के मायुरी तक्षको ने यम-यक्षिणियो और जैन मातृकाओ की भी पृथक् मूर्तियाँ वनाना प्रारम किया। मथुरा अजायबघर में प्रदर्शित जैन यम वरणेद्र (न० १३६) की मूर्ति इमी काल की है। इनके हाथ में एक चक्र है और मिर पर मापों के फण। ये मुपाश्वनाथ की सेवा में रहते हैं। ऋषभनाथ की यक्षिणी चक्रेश्वरी की भी एक सुन्दर मूर्ति मिली है। इसमें देवी गरुट पर सवार है और इसके प्राठी हाथों में चक्र है। गोद में बच्चो को लिये हुए और कल्प वृक्ष के नीचे बैठी हुई मातृकानो की भी कई मूर्तियां हमे ककाली टोले से मिली है। तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त कृपाण काल की एक विशेषता थी भगवान नैमेप की पूजा । नैमेप, नैगमेप या हरिनंगमेप जैन पथ मे मतानोत्पत्ति के प्रमुख देवता थे। इनकी पुरुष और स्त्री दोनो विग्रहों में मूर्तियां मिली है। मभक्त पुरुप विग्रह की मूर्तियाँ पुरुपो के पूजने के लिए थी और स्त्री विग्रह की मूर्तियां स्त्रियो के लिए। मूर्तियो में नंगमेप का मुख वकरे का दिखाया गया है। गले मे लत्री मोती की माला भी है, जो इनका विशेष चिह्न है। मथुरा में प्राप्न जैन मूर्तियो पर के लेब ऐतिहासिक, धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि मे बटे महत्त्व के है। इनमें पाये गये कृपाण गजायो के नाम तथा तिथियो मे हमे उनके ऋमिक इतिहास (Chronological history) तथा गज्य काल की अवधि का पता चलता है। यदि ये लेम्ब न मिले होते तो कनिप्क, हुविक जैसे देवतुल्य प्रतापी मम्राटी का ज्ञान हम केवल नाममात्र काही रहता। इन लेग्यो से हमे विदित होता है कि इनकी दाता अविकाश स्त्रियाँ थीं, जो बडे गर्व के माय अपने पुण्य का भागवेय अपने माता, पिता, मास, समुर, पुत्र, भाई, पुत्री आदि आत्मीयो को वनाती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि आज की तरह उस समय भी धर्म की स्तभ स्त्रियाँ ही थी। इन स्त्रियो में बहुत मी विधवाएं होती थी, जो इस गोकजनक अवस्था के कारण घर-गृहस्थी छोडकर मन्याम ले लेती थी और जन-मघ में भिक्षुणी वन जाती थी। ऐसी ही एक स्त्री कुमारमित्रा थी, जिसने वैधव्य के दुख मे दुखी होकर सन्यास ले लिया था और जिनके पुत्र ने एक वर्षमान प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। लेख में कुमारमित्रा को सगित, मोखित पीर बोषित (Whetted, polished and awakened) कहा गया है। इन लेखो मे जो गण, कुल, मघ,गोत्र, ग.खा, सभोक आदि गद आये है इनमे उस समय के जैन ममाज के विभिन्न धार्मिक दलो का पता चलता है। अभाग्यवश इन शब्दो का ठीक-ठीक अर्थ अव तक विद्वानो की समझ में नहीं आया, पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये दल भिन्न-भिन्न गुस्यो के अपने स्थापित किये हुए थे अथवा यह भी मभव है कि ये शब्द वैदिक काल के प्रवर, गोत्र, गाखा आदि के प्रतिरूप हो। लेखो की भाषा मिली-जुली प्राकृत और संस्कृत है, जो भापा-विज्ञान (Philology) की दृष्टि से बडे महत्त्व उक्त लेखों में जो सघ, गण, गच्छ, शाखा आदि शब्द आये है, उनका सकेत जैन श्रमणो के उन विभिन्न संघो की पोर है, जो ईसा पूर्व की पहली सदी के फरीव जैन-श्रमणो में अपनी-अपनी आचार्य-परम्परा और पर्यटनभूमि की विभिन्नता के कारण पैदा होने शुरू हो गये थे।-सपादक ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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