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________________ मथुरा जैन स्तूप और मूर्तियाँ श्री मदनमोहन नागर एम० ए० भारतवर्ष के इतिहास मे मथुरा जिस प्रकार हिन्दू और वौद्ध धर्म के लिए अग्रणी रहा उसी प्रकार जैन धर्म और कला का भी अत्यन्त प्राचीन काल से प्रमुख स्थान था। ईसा से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व से ही यहाँ के स्वच्छन्द वातावरण में जैन धर्मानुयायी हिन्दू और बौद्धो के साथ प्रीतिपूर्वक अपने उच्च जीवन को विता रहे थे। वौद्धो के वुद्ध और वोधिमत्व तया हिन्दुओ के ब्रह्मा, विष्णु आदि की तरह जनो के तीर्थकरो की भी मूर्तियो का सर्वप्रथम निर्माण मयुरा में हुआ और इस प्रकार इस पवित्र नगरी कोही भारतवर्ष के तीनो प्रधान धर्मो के देवी-देवताओ को मूर्तिमान करने का श्रेय प्राप्त हुआ । यदि उत्तरी भारत में कोई भी ऐसा स्थान है, जहां प्राचीन जैन-कला तया मूर्ति-विज्ञान का विशिष्ट तथा सम्यग् अध्ययन किया जा सकता है तो वह मथुरा ही है। जैन धर्म की जो कुछ पुरातत्त्व मामग्री हमें मथुरा से प्राप्त हुई है वह अधिकाश ककाली टीले से है। यह टीला नगर मे वाहर दो मील की दूरी पर आगरा-दिल्ली रोड पर बसा है। ककाली टोला मथुरा के बहुत ही धनी टोलो मे से है और प्राचीन काल में उत्तरी भारत में जैन धर्म और स्थापत्य कला का सबमे वडा केन्द्र था। इस टीले से कुछ हिन्दू और वौद्ध मूर्तियाँ भी मिली है, जिनसे मभवत यह ज्ञात होता है कि जैन धर्म की वढती देखकर हिन्दुप्रो और वौद्धोने भी उनके समीप अपना केन्द्र बना लिया था। इस टोले की चोटी पर एक नक्काशीदार खभाहै जिसे आजकल लोग ककाली देवी कर के पूजते है और जिसके कारण इस टोले का नाम 'ककाली' टीला पडा है। किन्तु वास्तव मे इस स्थान पर एक प्राचीन जैन स्तूप था जो 'वोद्व स्तूप' के नाम से प्रसिद्ध था। यह स्तूप ईस्वी दूसरी गती मे इतना प्राचीन समझा जाने लगा था कि लोग इसके वास्तविक बनाने वालो को नितान्त भूल गये थे और इसे देवो का बनाया हुआ मानने लगे थे। इमसे यह प्रतीत होता है कि 'वोद्व स्तूप' वहुत ही प्राचीन स्तूप था, जिसका निर्माण कम-से-कम ईस्वी पूर्व पाँचवी-छठी शताब्दी में हुआ होगा। इस अनुमान की पुष्टि का दूसरा प्रमाण यह भी है कि तिब्वतीय विद्वान् तारानाथ ने लिखा है कि मौर्य काल की कला यक्ष-कला कहलाती थी और उससे पूर्व की कला देव-निर्मित कला । अत यह सिद्ध होता है कि ककाली टोले का जैन स्तूप कम-से-कम मौर्य काल मे पहले अवश्य बना था। कहा जाता लेखक महाशय की यह धारणा कि हिन्दू और बौद्ध मूर्तियों के समान जैन तीर्थंकरों की मूर्तिया भी कुषाण काल में मथुरा में ही बननी शुरू हुई, कुछ युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती, क्योकि ईसा पूर्व की दूसरी सदी (१७३ वी० सी०-१६० वी० सी०) के उडीसा प्रान्त वाले सम्राट् खारवेल के हाथी गुम्फ शिलालेख के आधार पर डा० जायसवाल के मतानुसार यह साफ विदित है कि खारवेल के समय से भी पहले उदयगिरि पर जैन अर्हन्तो के मदिर वने हुए थे। सम्राट् खारवेल ने मगध साम्राज्य को परास्त कर आदि-जिन ऋषभदेव की उस मूति को, जो तीन सौ वर्ष पहले मगध राज नन्दिवर्धन उदयगिरि से उठा कर ले गया था, ला कर पुन स्थापित किया था। इसके अतिरिक्त १४ फरवरी १९३७ को पटना जकशन स्टेशन से एक मील की दूरी पर लोहियापुर से पृथ्वी खोदते समय जो ढाई फुट ऊँचा नग्न मूर्तिखड मिला है और आजकल पटना अजायबघर में रक्खा हुआ है वह डा० काशीप्रसाद जायसवाल के मतानुसार उपलब्ध जैन-मूर्तियों में प्राचीनतम जैनमूर्ति है और ईसा से लगभग ३०० वर्ष पूर्व पुरानी है। डा० जाय सवाल का उपरोक्त मत २० फरवरी १९३७ वाले 'सर्चलाइट' में प्रकाशित और जैन ऐंटिक्वेरी, जून १९३७ में उद्धृत हुआ है। इन दोनो शिलालेख और पुरातत्त्व के उदाहरणो से स्पष्ट है कि जैन तीर्थंकरो की मूर्तिया कुषाण काल से कई सदी पहले भारत के विभिन्न भागो में मौजूद थीं।-सपादक ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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