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________________ २७२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ इच्छा को बताऊँगा। यह इच्छा-शक्ति को अधिक वढाने के लिए निरतर अथकरूप से दूसरो के प्रति युद्ध करते रहना है, जिसका अन्त केवल मृत्यु मे होता है । इस लगातार युद्ध की इच्छा का सदा यह कारण नहीं होता कि मनुष्य प्राप्त सुख से कही अधिक सुख प्राप्त करने की कामना करता है या कि वह एक निश्चित शक्ति से सन्तोष-लाभ नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह कारण है कि उसे विश्वास नहीं होता कि किसी निश्चित शक्ति या साधनो से उसका जीवन ययेच्छ सन्तोषमय हो सकता है। इस प्रकार उसे अपनी वर्तमान परिस्थिति से सन्तोष न होकर सदा अधिक-अधिक प्राप्ति की इच्छा बनी रहती है ।" इस प्रकार के भाव वाले वाक्य किसी भी काल के सस्कृत-साहित्य में मिल सकते है। आदि-सृष्टि के मनुष्यो का चित्रण उस आदर्श तथा उच्च ढग पर किया हुआ नहीं मिलता, जैसा कि हम वसुवन्धु मे पाते है । प्राय उनका वर्णन प्राकृतिक रूप से दुष्ट मनुष्यो के रूप में किया गया है, जो सदैव एक-दूसरे का गला काटने के लिए तैयार रहते है, जो केवल दूसरे के द्वारा वदला लिये जाने के भय से ही दूसरे पर अत्याचार करने से रुक सकते है, (महाभारत, १२, १५, ६-परस्परभयादेके पापात् पाप न कुर्वते) या फिर दड के डर से ऐसा नही कर सकते (१२, १५, ७-दण्डस्यैवभयादेके न खादन्ति परस्परम्) । इस सम्बन्ध में यह वात विचारणीय है कि यहाँ 'दड' शब्द कम-से-कम प्राचीन साहित्य में, उस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसमें 'लॉ' या 'कानून' शब्द होते है । वह केवल दड देने का सूचक नही है। महाभारत (१२, १५, १०) मे यह साफ-साफ लिखा है कि 'दड' का अर्थ 'मर्यादा है। राजा इस दड (नियम, कानून) का स्वरूप कहा गया है, जैसा कि महाभारत मे मत्स्यन्याय सम्वन्धी वर्णन से प्रकट होता है, जिसमे दड तया राजन् शब्द एक-दूसरे के द्योतक सिद्ध होते है (मिलामो 'महाभारत' १२, १५, ३० और १२, ६७, १६) । यही बात महाभारत में आये हुए एक पाठ-भेद से, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, सिद्ध होती है (प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्-महा०, १२, ६८,८)। ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारतीय राजनीतिशास्त्र में राजा का प्रभुत्व उसके व्यक्तिगत रूप में न माना जाकर शासन-नियमो के सरक्षक के रूप में स्वीकार किया गया है। क्रिश्चियन (यूरोपीय) राज्यतन्त्र के अनुमार प्रजा राजा की आज्ञामो का पालन करने के लिए वाध्य है, क्योकि राजा ईश्वर के द्वारा अभिषिक्त होता है, परन्तु प्राचीन भारत के राजनीति-साहित्य मे कही पर भी ऐसा कथन नही पाया जाता, जिससे राजा का ऐसा प्रभुत्व मूचित हो। भारत की राजनीति धर्म-प्रधान थी। वह कभी राजा के अनियन्त्रित अधिकारो के अधीन नही हुई और कम-से-कम राजनैतिक नियम-व्यवस्था में राजा को कभी स्वेच्छाचारी या प्रजा-पीडन का अधिकारी नही घोषित किया गया। मेधातिथि जैसे एक वाद के राजनीतिज्ञ लेखक तक ने यह लिखा है कि धर्म के मामलो में राजा सर्वोच्च नही है (मनुस्मृति, ७, १३ पर टीका)। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय सामाजिक जीवन में धर्म का क्षेत्र बहुत व्यापक है । अत इस बात में कोई आश्चर्य न मानना चाहिए कि राजा को इस देश में वह ईश्वर-तुल्य पूज्यभाव नहीं दिया गया, जो रोम में पाया जाता है। इतना ही नहीं, भारत के प्राचीन साहित्य में कुछ ऐसे भी कथन है, जिनमें प्रजा को इतना तक अधिकार दिया गया है कि वह कर्तव्यविमुख राजा को हटा सकती है। रामायण (३, ३३, १६) मे यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि यदि राजा दुराचारी है तो उसके स्वजनो द्वारा ही उसका वध कर देना विहित है। कलकत्ता
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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