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________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ २६४ अतएव यहाँ महावीर को वसति मिलना भी मुश्किल होता था। वज्रभूमि के निवामी रूक्ष भोजन करने के कारण म्वभावत क्रोधी होते थे और वे महावीर को कुत्तो से कटवाते थे। आधुनिक हुगली, हावडा, वाकुरा, बर्दवान और मिदनापुर के पूर्वीय भाग को प्राचीन लाढ देश वताया जाता है । ___कोटिवर्प जैन-श्रमणो की एक मुख्य शाखा बताई गई है। इसमे मालूम होता है कि बाद मे चलकर यह प्रदेश जैन-श्रमणो का केन्द्र बन गया था। यहां के राजा चिलात के महावीर द्वारा जैनदीक्षा लिये जाने का उल्लेख पहले किया जा चुका है। कुछ विद्वान् दीनाजपुर जिले मे वरीगढ को प्राचीन कोटिवर्ष मानते है। २५६ केकयी अर्ध (श्वेतिका) केकयी देश के आधे भाग को आर्यक्षेत्रो मे गिना गया है। इससे मालूम होता है कि समस्त केकयी मे जैनधर्म का प्रचार नहीं हुआ था। यह देश श्रावस्ती के उत्तर-पूर्व मेनपाल की तराई मे अवस्थित था तथा इसे उत्तर के केकयी देग से भिन्न समझना चाहिए। श्वेतिका से गगा नदी पार कर महावीर के सुरभिपुर पहुंचने का उल्लेख जन-ग्रन्थो मे आता है । बौद्धग्रन्थो में इसे सेतव्या नाम से कहा गया है। यह स्थान कोशल में था। जैन-श्रमणो का प्रवेश नेपाल मे भी हुआ था। इस प्रान्त में भद्रबाहु, स्थूलभद्र आदि जैन-साधुओ ने विहार किया था। नेपाल में रहकर स्थूलभद्र ने भद्रबाहु स्वामी से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया था। नेपाल में चोरो का भय नही था तथा यहाँ जन-साधु कृत्स्न वस्त्र धारण कर रह सकते थे। यह स्थान रूबेदार कम्वलो के लिए प्रसिद्ध था। इन साढे पचीस प्रार्यक्षेत्रो के अतिरिक्त, अन्य स्थलो मे भी जैन-श्रमण धर्मप्रचार के लिए पहुंचे थे। जैसा पहले कहा जा चुका है, राजा सम्प्रति ने दक्षिणापथ में जैनधर्म का प्रसार किया। जान पडता है कि इसके पूर्व जैनधर्म दक्षिण में नहीं पहुंचा था। यही कारण है कि उक्त साढे पच्चीस आर्यक्षेत्रो में दक्षिण का एक भी प्रदेश नही आया है। परन्तु जैमा जैन-ग्रन्थो से पता चलता है, कुछ समय बाद दक्षिणापथ जैन-श्रमणो का वडा भारी केन्द्र बन गया था और भिक्षा आदि की सुविधा होने से जैन-साधु इस प्रान्त में विहार करना प्रिय समझते थे। इस प्रान्त में श्रावको के अनेक घर थे।" राजा मम्प्रति ने दक्षिणापथ को जीतकर उसके सीमात राजानो को अपने वश मे किया था। प्राचीन काल में अवन्ति नगरी दक्षिणापथ मे सम्मिलित की जाती थी। गगा के दक्षिण और गोदावरी के उत्तर का हिस्सा दक्षिणापथ कहा जाता है। 'प्रावश्यक नियुक्ति ८४३, प्राचाराग सूत्र ६३ पावश्यक नियुक्ति ४६२, प्राचारागसूत्र ६३ 'कल्पसूत्र ८, पृ० २२७ अ *डी लहरे डर जैनास, शूब्रिड् पृ० ३६ "आवश्यक नियुक्ति ४६६ 'दीघनिकाय, २, पृ० ३२६ "आवश्यक चूणि २, पृ० १८७ 'बृहत्कल्पभाष्य ३.३९१२ 'वही ३३८२४ "बृहत्कल्पभाष्य १.२६९७ "निशीय चूणि १५, पृ० ६६६ "वृहत्कल्पभाष्य १३२७६
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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