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________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २४३ भौड के टोले मे हटाकर मिरकप में वसाया और यह नगर वरावर ग्रीक-शक, पल्लव और कुपाण काल तक अर्थात् वेम कदफिस (ई० सन् की पहली गताळी के अन्त तक) तक वरावर वमा था (माल, गाइट टु तक्षिला, पृ० ७८, तृतीय सम्करण)। शहरपनाह के अन्दर से जो भग्नावर्गप मिले है उनमें ऊपर के दो स्तर तो पह्नव और प्रारम्भिक कुषाण काल के है (ईमा की पहली शताब्दी)। उनके नीचे तीसरे और चौथे स्तर गक-पह्नव काल के है और उनके भी नीचे पांचवें और छठे स्तर ग्रोक काल के है (वही, पृ०७६)। सरकप के राजमार्ग के आसपास कुछ छोटेछोटे मन्दिर मिले हैं जिन्हेंसर जान मार्गल ने जैन मन्दिर बतलाया है (वही, पृ०८०)। ब्लाक 'जी' में, जो राजमार्ग के दाहिनी ओर स्थित है, वहुत मे बडे मकानो के भग्नावशेष मिले है जिनकी खास विशेषता यह थी कि उनके माथ-साथ निजी ठोटे मन्दिर भी बने होते थे। ये मन्दिर मटक की तरफ खुले होते थे जिसमें भक्तों को दर्शन में सुविधा होती यो।लाक 'जी' के एक वडे मकान में, जो ईया को पहली शताब्दी के मध्य में वना था, एक चैत्य पाया गया है जो सर जान माल के अनुमार जैन-धर्म का है। अपने इस सिद्धान्त की पुष्टि में मर जान का कहना है कि इन चैत्य-स्तूपी को बनावट मथुरा के अर्वचित्रो में अकित जैन-स्तूपो से बहुत मिलती-जुलती है (वही, पृ० ८७)। पुरातत्त्व की नहायता से अब हमें मालूम पड़ता है कि वास्तव में तक्षगिला के सम्बन्ध में जैन-अनुश्रुति ठीक है। एक समय तक्षशिला जनो का भी एक वटा केन्द्र रहा होगा, इसमें मगय करने की अव गुजाइश नहीं। ईया के प्रथम शताब्दी के अन्त में कपाणीने मिरकप पर धावा मारकर उसे तहस-नहम कर दिया और बाद में तक्षमिला का नया नगर मिग्मुख मे वमाया। कुपाणो का इस व्वमात्मक क्रिया का प्रमाण सिरकप की खुदाई में मिला है। ब्लाक 'डो' में प्रकठक (Apsidal temple) मन्दिर की पिछली दीवार से सटे हुए एक छोटे कमरे के फर्म में मोने-बांदी के बहुत मे गहने और वरतन मिले है। भर जान मार्शल का कहना है कि बहुत सम्भव है कि मरकप का यह खजाना तया और भी बहुत मे खजाने, जो खुदाई में मिले है, कुपाणी के नगर पर धावा बोलने पर जल्दी मे जमीन में गाट दिये गये थे (वही, पृ०१७)। ___ अब हम पुन तक्षशिला वाली जैन-अनुश्रुति पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि उममें जो दो-तीन बात कही गई है क्या वे इतिहास और पुरातत्त्व के प्रकाश में ठीक वैठती है ? पहली बात जो इस अनुश्रुति में हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह है तुरुको द्वाग तक्षशिला का विध्वम । हमें मालूम है कि पश्चिमी तुरप्को का गज्य मानवी शताब्दी में तुम्बारिस्तान में आया जब तक्षशिला का नगर के म्प में पराभव हो चुका था, क्योंकि सातवी शताब्दी में ही जव युवान च्वाग ने उसे देखा तो अधिकतर वौद्धविहार नष्ट हो चुके थे और वहुत थोडे मे महायान वादमिनु वहाँ रहते थे (वाटर्म, युवान च्वाग, भाग १, पृ० २४०)। फिर ऐमी गडवट क्यों ? कारण माफ़ है। तुरुप्क आधिपत्य के समय के लेखको ने तुम्वार और तुरुष्क गब्दो को एक ही मान लिया है । डा० वागची के अनुसार नुवारा या कुपाणी का देश तोखारिस्तान मातवी गताब्दी में पश्चिमी तुर्कों के हाथ में चला गया। तब यह स्वाभाविक पाकि बाद के सस्कृत लेखक तुखारी और तुमको में गडबड कर बैठे (दी प्रोसीटिंग्स प्रॉव दीइडियन हिस्टोरिकल स, मिक्स्य मेगन, पृ० ३९) । तेरहवी सदी के अन्त के लेखक प्रभावकचरित के कर्ता प्रभाचन्द्र मुरि का भी इस पुरानो भूल का गिकार हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।। . दूसरी बात को ध्यान देने को है वह यह कि जन-मूर्तियो का तमगिला के मुइवरो मे तेरहवी शताब्दी तक मिलना। वरा का उलेख पाने से हमारे मामने फौरन सिरकप के वास्तुशास्त्र की एक विशेपता या खडी होती है, जिसका विवचन मर जान मार्गल ने अच्छी तरह किया है। मिरकप के घरो की एक खाम विशेषता यह है उनमें से कुछ में एक कमर मे दूसरे कमरे में जाने के रास्ते है, लेकिन उनमें एमे दरवाजा का पता मुश्किल में लगता है जिनमें पाचौक से प्रादमी भीतर जा सके। इसका कारण यह है कि मकान ऊँचे अविष्ठानो पर बनते थे और और ऐमा होने पर वे मिट्टी से भर दिये जाते जाअव दिन्बलाई देते है या तोनीव का काम देते थे कातहम्वानों के ऐसा उपयोग होता होगा, जिनमें पहुंचने के लिए अपर के कमरों मे सीढियां नगी होती होकर मडक मे या चौक से आदमी भीतरज मकान के ग्वड जो अब दिखलाई देते है या र हॉगया उनका तहखानो के एसा
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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