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________________ २०८ प्रेमी-पमिनंदन-प्रयवाककिजिन के अन्दर का समतोलन बिगड़ा हो, चबतक कि खून के अन्दर कोई-न-कोई इस तरह की कमजोरी कमी पावेशीपदान हो गई हो, वो उनकीवाणुओं को वहां टिकने और पनपने का मौका दे।, ".., . हमारी इस तहको प्रादाबें, इस तरह के विचार जैसे हिन्दूवाति और हिन्दू संस्कृति को वचावरखने की बन्दरत है, इस्लाम मोर मुस्लिम कल्वर खतरे में है', हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हिन्दू संगन्न जरूरी है इस्लाम की हिशाप दे दिए मुभवम्गों की अत्म नदीम नाज़िमी है, वृद्धि और तवलीग,बोलने वालने और लिखने पहनी को जवान को एक तरफ नस्कृत के और दूसरी तरफारसी और अखो के ज्यादा नदीक लाने की कोशिशें, राष्ट्रीय कालोपीन राष्ट्रीय प्रत्याओं तक में हिन्दू रंग-ढंग और हिन्दूतास्वरोकों को वरखने और चमकाने की लालसा ये सब वो इन रात को साबित कर रही है कि हमने अभी तक ारो रीति-रिवाजों के फरकों से कर एक मिली-चुनी कौनी जिन्दगीकार करने के उदक को पूरी तरह नहीं सीखा, बोकुदरत हमें इनदोनों धर्मों को एक बरहलाकर सिखाना चाहती थी। रोग का इलाव ने साफ है। इस सारी भूल-मुलइयों में से हम चाहें तो अपना रास्ता साफ देख सकते। हैं। रास्ता नहीं है, वो इससे पहले की टक्करों में से निकलने का रास्ताया। वक्तक आदमी आदमी है। सम तरह-तरह के विचारों का पैदा होना, उसके तरह-तरह के विश्वास और तरह-तरह की मानताएं होना कुदरती है। यहचौध वैसोही युदरती है, जी एक विशाल वन या सुन्दर उपवन के अन्दर तरह-तरह की वनसतियों और रग-विरल फूलों काउगना । हरेकका अपना सौन्दर्य । हरेक की अपनी पयोगिता । विनके मॉडे हैं, उन्हें इस निचिश्ता में ही, इस रणविरले-पन में ही, कुदरत के वार का असली सौन्दर्य दिखाई देगा। इस विचित्रता में ही मानव विकास का रास्ता मिलता है। कोई देश नमव तक उम्प नहीं कहा जा सकता, बक्तक किसके, रहने वालों को अपने विचारों और विश्वाश में, अपनी पूना और इबादत के तरीकों में पूरी आबादी हासिल नहो। हमारे देश के अन्दर नीतहह के विचारों का हजारों वरखने एक दूसरे के साथ रहना और पाखीर में घुल-मित दाना इस बात को साबित कर रहा है कि हम जिन्दगी के इस सुनहले उसूल को काफी चानते और समम् रहे है ।। वहन-सी बान में हिन्दुओं और नियों, वैष्णवों और शान्तों, सनातनधर्मियों मोर मार्यसमावियों, वर्माधमियों, और ब्राहपों में विना मूली फरक है, भाव-समावियों और मुसलमानों या मानूली हिन्दुओं मौर मुसनमानों में उससे कहीं कम है। बात नि इतनी है, वैसा हम पर कह चुके हैं, कि हमारे इतिहास कायहाजिरी उमन्वय अभी पूरा नहीं हो पाया था कि बाहरी ताज्ञों ने छेडकर हमारी हालत को घोड़ा-साटिल कर दिया और कुछ देर के लिए देश में एक कट पैदा हो गया। हमें प्रव तिथं दो बातें समम्नी है। एक यह कि मबहवी रोनिखिाओं या पूजा-पानके तरीकों के प्रता अलग होते हुए भी हमें देश में एक मिली-जुली चनाजी जिन्दगी, मिला-जुला रहन-चल, मिली-जुली जवान पनाकली है, कानी है और उसे कायम रखना है। रीति-रिवाव सबमरी चौवें हैं। हर देश में वे बदलते रहे है और बदलते रहेंगे। सितह शरीर का बदलना बव-तब जरूरी हो वाता है, उसी तरह इन परी रीति-रिवालों का बदले रहना नी समादी विन्दगो के लिए वरूरी होता है। हिन्दुओं की चन्मना वाति, वातपात भोर छुमास्त, किसी भी दूसरे के छूने से किसी के भोजन और पानी का नापाक हो जाना, एक ऐसी सड़ी-गली और हानिकररूढ़ि है, जिसका अन्त करना हमारे समावी वीवन को कायम रखने के लिए उरूरी है। बुद्ध भगवान् के समय से लेकरचीच के जमाने के सन्तों, कबीर और दादू तक सब हमें यही उपदेश देते चले आये हैं। ऐसे ही वोलचाल में या किताबों और भवन में आवश्यकता' की बगह 'वात' या 'चरूरत' की जगह 'आवश्यकता' पर चोर देना, नुमाइश से भामफहम शब्द को बदल कर प्रदशिनों करला, हवाईजहाद' को वायुयान' या 'यार' कहने की कोशिकलाएकवीमाये है, वो हमारी समावी जिन्दगी को टुकड़े-टुकड़े कर रही है और हमारी प्रालाओं को संकीर्ण बना रही है। एक सौषौशादों, मिला-बुली, आमव्हम बोली की वाह संस्कृत भरी हिन्दी या फारती अरवी भरी ज्र्दू को तरस जाने
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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