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________________ १६४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ को सीचे महज़ पत्तो पर पानी छिडक देने से वृक्ष हरा-भरा नही रह सकता, उसी प्रकार वाल-साहित्य के विना हमारा प्रौढ-साहित्य भी पनप नहीं सकता। आज वाल-साहित्य के नाम पर जो कुछ निकल रहा है, उसे देखकर कष्ट होता है। छपाई और ऊपरी टीपटाप के अतिरिक्त उन पुस्तको मे सार कुछ भी नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि इन पुस्तको के अधिकाश लेखक वालमनोविज्ञान से अपरिचित है। कुछ ऐसे भी लेखक है, जिन्होने वाल-मनोविज्ञान का शास्त्रीय अध्ययन किया है, किन्तु वालको की दुनिया के निकट सम्पर्क में न रहने के कारण उसका व्यावहारिक ज्ञान उनमें नहीं है । यह निर्विवाद है कि विना व्यावहारिक ज्ञान के वाल-साहित्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। ___ कुछ लोग ऐसे भी है, जो बच्चो के साथ काम करते है और व्यावहारिक वाल-मनोविज्ञान से भी परिचित है, लेकिन वाल-साहित्य मे प्रकाशको की रुचि न होने के कारण उन्हें निराश होना पडता है। यही कारण है कि हिन्दी में अवतक जो भी वाल-साहित्य लिखा गया है, उसमें निन्यानवे प्रतिशत अवैज्ञानिक, निकम्मा और वालक के अन्तरमन मे विषम ग्रन्थियां पैदा करने वाला सिद्ध हो रहा है। हमने अधिकाश वाल-साहित्य का विवेचनात्मक एव पालोचनात्मक रोति से अध्ययन किया है और उसे वाल-मनोविज्ञान की व्यावहारिक कसौटी पर खरे उतरते नही पाया है। यहां कुछ उदाहरण देना अप्रासगिक न होगा। __बच्चो की एक पुस्तक में हमने पढा था, "भोदूराम जी घर से थोडो दूर गये थे। एक स्त्री को जाते हुए आपने देखा, आप ठहरे रसिक, स्त्री पास से गुजरे और आप उसे न देखें, यह करो हो सकता था ?" लेखक भारत के एक बडे प्रकाशक है। हम नहीं समझ पाते कि वच्चो के लिए इस प्रकार के शब्द उनकी कलम से कैसे निकले? . एक दूसरी पुस्तक मे, जो प्रयाग से प्रकाशित हुई है, लेखक लिखते है, "यह पिछले कर्मों का फल है । ब्राह्मण ने पिछले जन्म में बुरे कर्म किये थे। आज फांसी मिलनी चाहिए थी। किन्तु इस जन्म में अच्छे कर्म करने के कारण सिर्फ कांटा लगा है।" हम समझते है कि कोई भी मनोविज्ञान का विद्यार्थी और समझदार शिक्षक इस प्रकार की पुस्तक वच्चो के हाथ में देकर उनके मन को पुनर्जन्म और भाग्य के भंवर मे नहीं फंसावेगा। हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध विद्वान ने बच्चो के लिए एक पुस्तक लिखी है। उसमे वे लिखते है, "सव वस्तुनो के नष्ट हो जाने पर भी ईश्वर कायम रहता है। और मनुष्यों के पाप-पुण्य का न्याय करता है । ईश्वर का नाम बारवार जपने और उसका उपकार मानने से वह खुश होता है।" हमारी धारणा है कि बच्चो के कोमल हृदय पर पापपुण्य की विपम रेखाएँ खीच कर इन लेखक महोदय ने देश के आधार-स्तम्भ वाल-समाज का वडा अपकार किया है। हम नही समझते कि वच्चो को ऐसे तत्व-दर्शन का शिक्षण देने की कोई आवश्यकता है। स्पष्ट है कि आज वालको के लिए हिन्दी के बडे-बडे लेखको और प्रकाशको द्वारा इस प्रकार के अवैज्ञानिक और असामाजिक साहित्य का निर्माण किया जा रहा है और विवश होकर हमें यही कूड़ा-कचरा और विपैला साहित्य वच्चो के हाथ में देना पड़ता है। हमने देश के बडे-बडे राष्ट्रीय शिक्षालयो और पुस्तकालयो तक में वालको को ऐसा ही साहित्य पढते पाया है। यदि प्रौढ-साहित्य में अश्लील और असामाजिक पुस्तके प्रकाशित होती है तो वर्षों उन पर वाद-विवाद चलता है, लेकिन वाल-साहित्य इतना अनाथ है कि कोई कुछ भी लिखता रहे, किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। हमारा सुझाव है कि जिस प्रकार दादा गोर्की ने रूस में वहाँ के माता-पिता और शिक्षको को साथ लेकर वालमाहित्य के निर्माण के लिए सगठित प्रयत्न किया था, उसी प्रकार हम लोग भी इस दिशा मे प्रयल करें। मैक्सिम गोर्की ने रूस के बच्चो की साहित्य-सम्वन्धी अभिरुचि को जानने के लिए वहाँ के बच्चो से कुछ प्रश्न पूछे थे। प्रश्नो के जो उत्तर प्राये, उन्ही के आधार पर वहां के साहित्यिको ने वाल-साहित्य तैयार किया। प्राय बच्चो ने जगल के पशु-पक्षी और सताये हुए बच्चो की करुण कहानी सुनना अधिक पसन्द किया। कुछ ने साहसिक यात्रामो और वैज्ञानिक
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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