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________________ समालोचना और हिन्दी में उसका विकास १४७ (४) वक्रोक्ति सम्प्रदाय - कृतक ने वक्रोक्ति को ही काव्य का भूषण माना है । इसके पूर्व भामह ने इसकी 'चर्चा की थी । कुतक ने वक्रोक्ति में ही रस, अलकार और रीति सम्प्रदायो को सम्मिलित करने की चेष्टा की । कुछ आचार्य वक्रोक्ति को अलकार के अन्तर्गत मान कर मौन हो जाते हैं | (५) ध्वनि-सम्प्रदाय ने वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न अर्थ को, जो 'व्यगार्थ ' कहलाता है, महत्त्व दिया है । इसके प्रकट आचार्य श्रानन्द वर्धनाचार्य माने जाते है । इस सिद्धान्त ने संस्कृत - प्रलोचना साहित्य मे क्रान्ति मचा दी | ध्वनि में ही काव्य का सर्वस्व सुन पडने लगा । परिष्कृत भावक 'ध्वनि' - काव्य के ही ग्राहक होते है । श्रभिघापरक काव्य से उनमें रस की निष्पत्ति नही होती । हिन्दी में उक्त सम्प्रदायो में मे 'रस' और 'अलकार' - सम्प्रदायो को ही अपनाया गया । प्राज यह कहना कठिन है कि हिन्दी मे रस श्रौर अलकार - शाम्त्रो की रचना कब से हुई । केशवदास (स० १६१२) को (?) ही काव्य का आदि यांचा माना जा सकता है। उनके पश्चात् ( २ ) जसवन्तसिंह (भाषा - भूपण) (३) भूषण त्रिपाठी ( शिवराज भूषण) (४) मतिराम त्रिपाठी (ललित ललाम) (५) देव (भाव विलास ) (६) गोविन्द ( कर्णाभरण ) (७) भिखारीदास - ( काव्य निर्णय ) (८) दूलह (कठाभरण) (६) रामसिंह ( श्रलकार दर्पण) (१०) गोकुल कवि (चैत चन्द्रिका) (११) पद्माकर (पद्माभरण) (१२) लधिराम (१३) बाबूराम विस्थरिया ( नव-रस ) (१४) गुलावराय ( नव-रम) (१५) कन्हैयालाल पोद्दार (श्रलकार प्रकाश और काव्य कल्पद्रुम) (१६) अर्जुनदास केडिया ( भारतीभूषण ) ( १७ ) लाला भगवानदीन ( अलकार - मजूषा ) (१८) जगन्नाथप्रसाद 'भानु' (छन्द प्रभाकर ) (१९) श्यामसुन्दरदान (साहित्यालोचन) और (२०) जगन्नाथदाम रत्नाकर (समालोचनादर्श) श्रादि ने इस दिशा श्रम किया है। शास्त्र की रचना के साथ ममालोचना- प्रणालियों का हमारे यहाँ पाश्चात्य देशो की भाँति शीघ्र प्रचार नही हुआ । सवमे पहले सक्षिप्त सम्मति प्रदान की आशीर्वादात्मक प्रथा का जन्म हुआ । 'भक्तमाल' में ( विक्रम की सोलहवी शताब्दी मे ) " वाल्मीकि तुलमी भयो” जैसी सूत्रमय सम्मति मिल जाती है। साहित्य-कृति की अन्तरात्मा में प्रविष्ट हो उसके विवेचन का समय बहुत वाद में श्राता है । हरिश्चन्द्र- काल से कृति के गुण-दोप विवेचन की शास्त्रीय श्रालोचना का श्रीगणेश होता है । प० बद्रीनारायण चौधरी की 'आनन्द कादम्विनी' में 'सयोगता स्वयवर' की विस्तृत आलोचना ने हिन्दी में एक क्रान्ति का सन्देश दिया। पर जैसा कि आलोचना के प्रारम्भिक दिनो मे स्वाभाविक था, आलोचको का ध्यान 'दोपो' पर ही अधिक जाता था । मिश्रबन्धु लिखते है, " सवत् १९५६ में 'सरस्वती' निकली । मवत् '५७ में इसी पत्रिका के लिए हमने हम्मीर हठ और प० श्रीधर पाठक की रचनाओ पर समालोचनाएँ लिखी और हिन्दी - काव्य- श्रालोचना में साहित्य-प्रणाली के दोषो पर विचार किया । सवत् १९५८ मे उपर्युक्त लेखो में दोषारोपण करने वाले कुछ श्रालोचको के लेखो के उत्तर दिये गये । प० श्रीवर पाठक- सम्वन्धी लेख में दोषों के विशेष वर्णन हुए । हिन्दी काव्य-यालोचना के विषय में अखबारो मे एक वर्ष तक विवाद चलते रहे, जिसमे देवीप्रसाद 'पूर्ण' ने भी कुछ लेख लिखे ।" प० महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भी 'दोष-निरूपक श्रालोचना' को विशेष प्रश्रय दिया । इम काल तक 'शास्त्रीय श्रालोचना' से आगे हमारे श्रालोचक नही बढे । मिश्र वन्धुओ ने जब 'हिन्दी - नव-रत्न' मे कवियो को वडा छोटा सिद्ध करने का प्रयत्न किया तव प० पद्मसिंह शर्मा ने विद्वत्तापूर्ण ढंग से 'बिहारी' की तुलना संस्कृत और उर्दू-फारसी के कवियो से कर हिन्दी मे तुलनात्मक आलोचना - प्रणाली को जन्म दिया। इस प्रणाली मे शास्त्रीय नियमो का सर्वथा वहिष्कार नही होता, पर उसमें आलोचक की व्यक्तिगत रुचि का प्राधान्य अवश्य हो जाता है । यूरुप में ऐसी तुलनात्मक आलोचना को महत्त्व नही दिया जाता, जिसमें लेखको-कवियो को 'घटिया-बढिया’ सिद्ध करने की चेष्टा की जाती हैं । , - शर्मा जी की इस आलोचना -पद्धति का अनुकरण हिन्दी मे कुछ समय तक होता रहा, पर चूँकि इसमें बहुभाषा - विज्ञता और साहित्य - शास्त्र के गम्भीर अध्ययन की अपेक्षा होती है, इसलिए इस दिशा मे बहुत कम व्यक्ति सफल हो सके । पत्र-पत्रिकाओ की सख्या बढ जाने के कारण सक्षिप्त सूचना और लेख - रूप में आलोचनाएँ अधिक
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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