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________________ समालोचना और हिन्दी में उसका विकास १४५ "महागय, आपके ममझने मात्र से यह पद्य मुन्दर नहीं वन जायगा।" उम ममय व्यक्तिगत रुचि का साहित्यालोचन में कोई मूल्य ही नही माना जाता था। उन्नीसवी शताब्दी के अस्त होते-होते साहित्य में रोमाटिक युग ने आँखें खोली, जिसका नेतृत्व जर्मनी मे लेसिंग, इगलैंड में वर्ड्सवर्थ और फ्रास मे मेट विउ (Beuve) ने ग्रहण किया। इस युग म 'व्यक्तिगत रुचि' और 'इतिहास' को साहित्य-परीक्षण का प्रावार माना गया। इगलैंड में सर्व-प्रथम कॉलहिल ने राष्ट्र के इतिहास और साहित्य मे सम्बन्ध देखने की चेष्टा की। जर्मन दार्शनिक फिशे (Fichte) और हीगल ने इस सिद्धान्त को वडा महत्त्व दिया। "साहित्य से हम इतिहास का ज्ञान प्राप्त कर सकते है और इतिहास से साहित्य प्रवाह की लहरें गिन सकते है। यद्यपि अरस्तू-होरेम के बन्धन से मुक्ति मिल गई, पर 'व्यक्तिगत रुचियो' ने साहित्यालोचन मे इतनी विभिन्नता और अव्यवस्था उपस्थित कर दी कि एक आग्ल आलोचक के गब्दो मे "उन्नीसवी शताब्दी की आलोचना में किसी तारतम्य को खोजना कठिन है।" अशास्त्रीय परीक्षण के विभिन्न रूपो में (१) प्रभाववादी आलोचना (Impressionist criticism), (२) सौन्दर्यवादी (Aesthetical) (३) प्रशसावादी (Appreciative) और (४) मार्क्सवादी (Marxian) __आलोचनाए यूरुप के आधुनिक माहित्य-जगत् को अभिभूत करती रही है। __'प्रभाववादी आलोचना' मे आलोचक अनातोले फ्रास के शब्दो मे, “साहित्य के बीच विचरण करने वाली अपनी आत्मा के अनुभवो का वर्णन करता है।" इस प्रकार की आलोचना "मै"-परक होती है। उसमें आलोचक का व्यक्ति प्रधान होकर बोलने लगता है। 'History of the People of Israel' की आलोचना मे आलोचक अनातोले फ्राम की आत्म-व्यजना का ही सुन्दर रूप मिलता है। 'प्रभाववादी आलोचना' में जहाँ आलोचक अपने को व्यक्त कर आत्मविभोर हो जाता है, वहाँ सौन्दर्यवादी आलोचना' में वह साहित्य में केवल 'सुन्दरम्' ही देखता है। यह सौन्दर्य शैली का हो सकता है और कल्पना का भी। 'प्रशसावादी आलोचना' मे शास्त्रीय,प्रभाववादी और सौन्दर्यवादी इन तीनो प्रकार की प्रणालियो का ममावेश होता है । इस प्रकार की आलोचना में न माहित्य की व्याख्या होती है और न किन्ही नियमो का माप-तोल । उसमे हर स्रोत मे 'पानन्द-रम' को सचित किया जाता है। अपने इस आनन्द को अपनी ही कल्पना के सहारे आलोचक चित्रित करता है।* __इस प्रकार की आलोचना की एकागिता स्पष्ट है। इन दिनो पाश्चात्य देशो में आलोचना का एक प्रकार और प्रचलित है, जो 'माक्र्सवादी आलोचना' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें पालोचक कृति में देखता है कि 'क्या इसमें शोपक और गोपित' वर्गों का मघर्प है ? क्या शोषित वर्ग के प्रति लेखक की सहानुभूति है और क्या उसकी शोपक वर्ग पर विजय दिखाई गई है ? यदि इनका उत्तर "हाँ" है तो वह साहित्य की 'श्रेष्ठ कृति' है । यदि "नहीं" तो उसका मूल्य 'शून्य' है। यह बालोचना जीवन और माहित्य को एक मानकर चलती है। मोल्टन ने आधुनिक आलोचना के चार प्रकार प्रस्तुत किये है (१) व्याख्यात्मक (Inductive criticism) (२) निर्णयात्मक (Judicial method) (३) दार्शनिक पद्धति, जिसमें साहित्य की दार्शनिकता पर विचार किया जाता है और (४) स्वच्छन्द पालोचना (Free or subjective criticism), * The criticism is primarily not to explain and not to judge or dogmatize, but to enjoy, to realise the manifold charm the work of art has gathered into itself from all sources, and to interpret this charm imaginatively to the men of his own day and generation” (Studies and Appreciation ) १६
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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