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________________ साध हैं गान मेरे! श्री सुधीन्द्र एम्० ए० विविध गीतो में निरन्तर गा रहा मै प्रात्म-परिचय , भर उन्हीं में स्वगत सुख-दुख,प्रणय-परिणय, जय-पराजय । घोल देते विश्वजन है गान में अपनी व्यथाएँ , गूंथ देते है उन्हीं में सुख-दुखों की निज कथाएँ , गीत बनते विश्वजन के ये सरल पाख्यान मेरे। लक्ष्य कुछ गोपन लिये सब चल रहे अपने पथो से , एक ही पथ दीखता मुझको सभी के उन रथो से , रूप सवकी पुतलियो में मैं स्वय का ही निरखता, और अघरो पर सभी के प्रेम का पीयूष चखता , बन गये है गान ही ये आज अनुसन्धान मेरे ! श्वास जो दो वाहु से फैले कि लें निज प्रेय को भर, बांधने आये मुझे वे आज शत-शत पाश बनकर , एक तुमको बांधने को जो रचे ये रूप अगणित, रह गया उनमें स्वयं में आज पाठो याम परिमित , बस गये इन बन्धनो में आज मुक्ति-विधान मेरे । देखने तुमको यहां मैने मरण के द्वार खोले । "डूव लो मुझ में प्रथम" यो प्रलय-पारावार वोले । मरण जीवन-नाटय के है पट जिन्हें कि उठा रहे तुम अमर अभिनेता बने मुझ में 'स्व'रुप रचा रहे तुम | पा गये तुमको मुझी में आज प्रणयी प्राण मेरे ! साधना है गान मेरे ! वनस्थली ]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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