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________________ फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस ११७ से सम्वन्ध रखने वाले व्यक्तियो में फारसी-ज्ञान का प्रचार स्वय स्पष्ट है। इसलिए उनमे खडीबोली के अरबी-फारसी रूप का प्रचार होना कोई आश्चर्यजनक विषय नही है । अंगरेज़ो का सर्वप्रथम सम्पर्क ऐसे ही व्यक्तियो से स्थापित हुआ था। अत हिन्दुस्तानी (उर्दू अथवा खडीवोली के अरबी-फारसी रूप) को प्रश्रय देना उनके लिए स्वाभाविक ही था। प्रारम्भ में हिन्दी-प्रदेश से उनका अधिक घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित न हो सका था, किन्तु ज्यो-ज्यो यह सम्बन्ध घनिष्ट होता गया त्यो त्यो उन्हें भाषा-सम्बन्धी वस्तुस्थिति का पता भी चलता गया और एक समय ऐसा आया जब उन्हें वास्तविक परिस्थिति की दृष्टि से भाषा-नीति में परिवर्तन करना पडा। गवर्नर-जनरल और कॉलेज के विजिटर राइट ऑनेबुल विलियम पिट, लॉर्ड ऐम्हर्स्ट, ने भी अपने १८२५ ई० के दीक्षान्त भाषण मे विलियम प्राइस के विचारो का पूर्ण समर्थन किया था। उनके विचारानुसार भी फारसी और उर्दू जनसाधारण के लिए उतनी ही विदेशी भाषाएँ थी जितनी अंगरेजी। इसलिए उन्होने पश्चिमी प्रान्तो की ओर जाने वाले सरकारी कर्मचारियो को हिन्दी का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साग्रह आदेश दिया था।' इस नई भाषा-व्यवस्था के अनुसार कॉलेज के पुराने मुशियो से कार्य सिद्ध न हो सकता था। इन मुशियो के निकट हिन्दी और नागरी लिपि दोनो ही विदेशी वस्तुएँ थी। पहले कुछ सैनिक विद्यार्थी ऐसे अवश्य थे जो व्रजभाषा का अध्ययन करते थे। उनके लिए हिन्दू अध्यापक रक्खे भी गये थे, किन्तु नैपाल-युद्ध के छिडते ही उन विद्यार्थियो को सैनिक कार्य के कारण कॉलेज छोड देना पडा। फलस्वरूप अध्यापक भी इधर-उधर चले गये । अब कॉलेज के अधिकारियो को फिर हिन्दी-ज्ञान-प्राप्त अध्यापको की आवश्यकता हुई और साथ ही नवीन पाठ्य पुस्तको की भी। किन्तु इन दोनो विषयो के सम्बन्ध में विलियम प्राइस कोई नवीनता प्रदर्शित न कर सके। जो मुशी पहले से अध्यापनकार्य कर रहे थे उन्ही से हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के ज्ञान की आशा की गई। इसके लिए उन्हें समय दिया गया और अन्त में परीक्षा ली गई। इस परीक्षा में लगभग सभी मुशी असफल रहे । जो सफल हुए उन्हें हिन्दी के अध्यापनकार्य के लिए रख लिया गया। शेष को यह चेतावनी देकर कुछ और समय दिया गया कि यदि निश्चित समय में वे हिन्दी-परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सकेंगे तो उनके स्थान पर अन्य सुयोग्य व्यक्ति रख लिये जायंगे। भविष्य में हुआ भी ऐसा ही। अनेक पुराने मुशियो के स्थान पर नये अध्यापक रक्खे गये। पाठ्य पुस्तको के सम्बन्ध में उन्होने लल्लूलाल के ग्रन्यो तथा 'रामायण', बिहारी कृत 'सतसई' आदि पर निर्भर रहना ही उचित समझा । हिन्दी गद्य में वे नये ग्रन्थो का निर्माण न कर सके और न करा सके। . तो भी विलियम प्राइस की अध्यक्षता में भाषा के स्वरूप में परिवर्तन अवश्य हुआ। गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता 1 प्रयुक्त भाषा से तुलना करने पर यह भेद स्पष्ट ज्ञात हो जायगा। निम्नलिखित उद्धरण गिलक्राइस्ट कृत 'दि प्रॉरिएटल लिंग्विस्ट' के १८०२ ई० के सस्करण से लिया गया है वाद अजान काजी मुफ्ती से पूछा, कहो अब इसकी क्या सजा है, उन्होंने अर्ज की, कि अगर इबरत के वास्ते ऐसा शख्स कत्ल किया जावे, तो दुरुस्त है। तब उसे कत्ल किया और उसके बेटे को उसकी जगह सर्फराज फर्माया, शहर-शहर के हाकिम इस अदालत का आवाज सुनकर जहां के तहाँ सरी हिसाब हो गये " गिलक्राइस्ट के शिष्य विलियम बटवर्थ बेली ने कॉलेज के नियमानुसार होने वाले वार्षिक वाद-विवाद मे ६ फरवरी, १८०२ ई० को 'हिन्दुस्तानी' पर एक दावा पढा था, जिसकी भाषा इस प्रकार है _ "अरब के सौदागरो की प्रामव ओरफ्त से और मुसलमानों को अकसर यूरिश और हुकूमति कामी के बाइस अलफाजि अरबी और फारसी उसी पुरानी बोली में बहुत मिल गये और ऐक जबान नई बन गई जैसे कि बुनियादि कदीम पर तामीरि नौ होवे।" 'दे० 'एशियाटिक जर्नल', १८२६, में 'कॉलेज ऑव फोर्ट विलियम' शीर्षक विवरण ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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