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________________ प्रेमी-अभिनदन प्रथ १०६ (२) दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता -- (क) नन्ददास जी तुलसीदास जी के छोटे भाई हते । सो विनयूँ नाच-तमासा देखने को तथा गान सुनवे को शोक बहुत हतो । सो वा देश में सूँ एक सग द्वारका जात हतो । सो नन्ददास जी ऐसे विचार के में श्री रणछोड जो के दर्शन कूँ नाऊँ तो अच्छी है । जव विसने तुलसीदास जी सूं पूंछी तब तुलसीदास जी श्री रामचन्द्र जी के अनन्य भक्त हते ।" जासूं विनने द्वारका जायवे की नाहीं कही।" (ख) तब नन्ददास जी श्री गोकुल चले । तब तुलसीदास जी कूं सग सग आये । तव श्रायके नन्ददास जी ने श्री गुसाई जी के दर्शन करे । साष्टाग दडवत करी, और तुलसीदास जी ने दडवत करी नहीं । और नन्ददास जी फूँ तुलसीदास जी ने कही के जैसे दर्शन तुमने वहाँ कराये वैसे ही यहाँ कराओ । तव नन्ददास जी ने श्री गुसाई जी सो विनती करी ये मेरे भाई तुलसीदास हैं। श्री रामचन्द्र जी विना और कूं नहीं नमें है । तव श्री गुसाई जी ने कही तुलसीदास जी बैठो। इस भाषा के सम्बन्ध में दो वातें मुख्यत स्मरण रखनी चाहिए। पहली बात यह कि उक्त श्रवतरण जनसाधारण में प्रचलित ऐसी भाषा के है, जिनमें भाव व्यजना की सुन्दर शक्ति जान पडती है । इनके लेखक ने कही अपनी योग्यता अथवा किसी प्रकार का चमत्कार दिखाने का प्रयत्न नही किया है । सस्कृत के तत्सम तद्भव तथा श्रन्य प्रचलित शब्द भी इसमें प्रयुक्त हुए है । इससे जान पडता है कि संस्कृत के प्रभाव से मुक्त एक काव्य-भाषा उस समय गद्य-भाषा का रूप धारण करने की ओर पैर बढा रही थी। तीसरे अवतरण में प्रयुक्त 'तमासा', 'शोक' श्रादि शब्दो से ज्ञात होता है कि लेखक अरवी - फारसी के प्रचलित शब्दो को अपनाने के भी पक्ष में था। यही नही, मिश्रबन्धुओ की सम्मति में गुजराती मारवाडी बोलियो का भी इनको भाषा पर प्रभाव पडा है ।" दूसरी बात क्रियापदो के रूप से सम्वन्ध रखती है। बाबा गोरखनाथ, गोसाई विट्ठलनाथ, हरिराय आदि गद्यलेखको की भाषा की क्रियाएँ तथा कुछ अन्य शब्द इस बात के समर्थक है कि उनकी रचनाएँ व्रजभाषा की ही है । इस गद्य का क्रमश विकास होता गया । 'वार्ताओ' के लेखक की भाषा मे यद्यपि क्रियापदो का रूप बहुत कुछ पूर्ववत् ही बना रहा, तथापि कुछ ऐसे क्रियारूपो का प्रयोग भी उन्होने किया जो नये तो नही कहे जा सकते, पर जिनका प्रयोग पूर्ववर्ती लेखको के गद्य में वहुत कम हुआ है । उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित पक्तियो में रेखांकित क्रियाओ की ओर पाठको का ध्यान आकर्षित करना चाहते है सो एक दिन नन्ददास जी के मन में ऐसी आई। जो जैसे तुलसीदास जी ने रामायण भाषा करी है। सो हमहूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें। इन पक्तियो में श्राई, करी है, करें तथा 'ऊपर के श्रवतरणो में प्रयुक्त आये, वैठे, सुने, मिले, चले, करे कराओ, कराये, ग्रादि क्रियारूप प्राय वे ही है, जो वर्तमान खडीवोली में प्रयुक्त होते है। यही नही, 'वार्ताओ' की भाषा पूर्ववर्ती लेखको की भाषा से कुछ शुद्ध भी है । 'पूर्ण होत भई' की तरह पर ' त्यजत भई', 'कहत भई' आदि जो प्रयोग गोस्वामी विट्ठलनाथ आदि की भाषा में है उनके स्थान पर 'वार्ताओ' में हमें इनके व्रजभाषा के शुद्ध रूप मिलते है । इसके अतिरिक्त इनमें कारक चिह्नों का प्रयोग भी अपेक्षाकृत अधिक निश्चित रूप से हुआ है । 'वार्ताओ' में खटकने वाली एक बात है सर्वनाम का उचित प्रयोग न किया जाना। इसका फल यह हुआ कि मज्ञा शब्दो की भद्दी पुनरुक्ति हो गई है । विषय प्रतिपादन की दृष्टि से इनका गद्य सजीव और स्वाभाविक है । साधा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, पृ० २८ दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, पृ० ३५ "मिश्रबन्धुविनोद प्रथम भाग, पृ० २८५ 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता, पृ० ३२
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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