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________________ de sp de San ब्रह्मविलास में 50 ' ज्ञान उपरि मेरे सब लोग । ताहीँतें न जंग उपयोग ॥ जानें नहीं 'एक अरु दोय' । सो महिमा मेरी सब होय ॥ २८ ॥ तव दर्शनावरण यों कहै । जगके जीव अंध हैं रहें ॥ सो सब है मेरो परशाद । नौ रस वीर करें उनमाद ॥ २९ ॥ तवै बेदनी वोलें धीर । मो पैं दोय जातिके वीर ॥ महा सुभट जोधा बलसूर । तीर्थंकर के रहें हुजूर ॥ ३० ॥ और जीव वपुरे किहि मात । मेरी महिमा जग विख्यात ॥ मोको चाहें चहुं गति माहिं । मै छिन सुख द्यों छिन दुख पांहि ॥ ३१ ॥ आयु कर्म बोलै बलवंत । सिद्ध बिना सब मेरे जंत' ॥ मैं राखों तोलौं थिर रहै । नातरु पंथ मौत की गहँ ॥ ३२ ॥ मो पैं चार जातिके सूर । तिनसों युद्ध कर को कूर ॥ चहुंगति में मेरे सब दास । मैं त्यागों तव शिवपुरवास ॥ ३३ ॥ नामकर्म बोलै गहि भार । मो विन कौन करे संसार ॥ मैं करता पुदगल को रूप । तामें आय वसै चिद्रूप ॥ ३४ ॥ वीर तिरानवे मेरे संग । रूप रसीले अरु बहुरंग ॥ इनसों सरर्भर को जिय करै । तोहु न छाँडै मर अवतरे ॥ ३५ ॥ गोत्रकर्म लै द्वय असवार । उंचनीच जिनको परवार ॥ सूर वंशको यह स्वभाव । छिनमें रंक करै छिन राव ॥ ३६ ॥ अंतराय अपनों दलसाज । पंच सुभट देखी महाराज ॥ सबके आगें ये असवार । रणमें युद्ध कर निरधार ॥ ३७ ॥ कर हथियार गहन नहि देहिं । चेतनकी सुधि सब हर लेहिं ॥ ऐसे सुभट एक सौ बीस । तिनके गुणजानें जगदीश ॥ ३८ ॥ 1 ( १ ) जीव । ( २ ) वरावरी । BAÐILADILARÚSNE INNANdzanyang
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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