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________________ CREATERemponenep-somewoPARoop ....................शतअष्टोत्तरी. , डारिये । वचनकी चातुरी बनाय बोले कहा होहि, वचन तो वह सत्य शवद उचारिये ।। १००॥ सर्वया. जो परलीन रहै निशिवासर, सो अपनी निधि क्यों न गमावै । है, जो जगमाहिं लखै न अध्यातम, सो जिय क्यों निहचैपद पावै॥ जो अपने गुन भेद न जानत, सो भवसागरमें फिर आवै । जो विपखाय सोमाण तजे, गुड खाय जो काहेनकांन विधावै ॥१०॥ दुर्मिल सवैया ८ सगण. भगवंत भजो सु तजो परमाद, समाधिके संगमें रंग रहो। अहो चेतन त्याग पराइ सुबुद्धि,गहो निज शुद्धि ज्यो सुक्ख लहो। विपया रसके हित वूडत हो, भवसागरमें कछु शुद्धि गहो। तुम ज्ञायक होपट् द्रव्यनके,तिनसों हित जानके आपुकहो।।१०१॥ कवित्त. देखी देह खेतक्यारी ताकी ऐसी रीति न्यारी,बोये कछु आन 2. उपजत कछु आन है । पंचामृत रस सेती पोखिये शरीर नित, उपजै रुधिर मास हाडनको ठान है ।। १०२ ॥ एतेपर रहै नाहि । कीजिये उपाय कोटि, छिनमें विनश जाय नाम न निशान है। एते , है देखि मूरख उछाह मनमाहिं धरै, ऐसी झूठ वातनिको सांच कर मान है ॥ १०३ ॥ कुंडलिया. सुखमें मग्न सदा रहै, दुखमें करै विलाप । ते अजान जाने नहीं, यह पुन्य अरु पाप ।। यह पुण्य अरु पाप, आप गुन इनतें न्यारो । चिदिलास चिद्रूप, सहज जाको उजियारो ॥ PoGvomAGOVERemenpeopoornarcoaccount VendentavasainvodowancorenvisantvasanapraavaaNUAnisoniversantanspreade vaboreraDabapoapdapapaataaponsa - - p - - - ana -- --
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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