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________________ consensueprinter Roompo0000000000000000000RROUPROSAR २८० ब्रह्मविलासमें सुमरहु आतम ध्यान, जिहि सुमरे सिधि होत है ॥ सुमरहिं भाव अज्ञान, सुमरन से तुम होतहो ॥७॥ दोहा. मैनकाम जीत्यो वली, मैनकाम रस लीन ॥ मैनकाम अपनो कियो, मैनकाम आधीन ॥ ८॥ मैनासे तुम क्यों भये, मैनासे सिध होय ॥ मैनाही वा ज्ञानमें, मैनरूप निज़ जोय ॥९॥ जोगी सो ही जानिये, वसै संजोगीगेह ॥ सोई जोगी जोगेहै, सब जोगी सिरतेह ॥ १० ॥ को प्राप्त हुए जिनसे आत्मा (उजरे) उनले अर्थात् प्रगटरूपसे वंद हो रहा था, और जब ज्ञान सूर्य (उजरे) उज्ज्वल देखे गये, तव चारों गतों से (उनरे) छूटे भावार्थ सिद्ध पदको प्राप्त हुए। (७) हे भाई! ध्यानमें आत्माका स्मरण करो जिसके स्मरणसे कार्य सिद्ध ह होता है, अथवा जिससे सिद्ध होते हो, अज्ञान भावों के (सुमरोहिं) विलकुल नष्ट होजाने से तुम (सुमरनसे) स्मरण करने योग्य (परमात्मा) हो सक्ते हो। (८) मैं बलवान कामको न जीत सका और (मैंनकाम ) मैं 'नकाम व्यर्थ रसलीन अर्थात् विषयाशक्त हुआ. मैनकाम कहिये कामदेवकें आधीन होकर मैंने अपना काम न कियाअर्थात् आत्मकल्यान नहिं किया । (१०) (पी) हे प्रिय ! तुम (तारी) ध्यानको भूल करके अथवा ६ तारी कहिये मोहरूपी नसापी कहिये पिया और(तारीतन) संसार कीअथवा मोहकी रीतियों में लवलीन हो रहेहो, इसलिये हे प्रवीण तुम ज्ञान की (तारी) ताली अर्थात् कुंजी (चाबी) खोजो' तलाश करो, जो (तारी) १ तेरहवें गुणस्थानमें २ योग्य है. WommenPORARRORPOWewerupanoos Santoshonapranaprabenawanapan-poGOGAD/ E essen stredovertrieben weggeroosterbro Gobapoo500/1/0002
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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