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________________ EMAnoonarroranwerMEDVDRAPRIORPORPORAN जिनधर्मपचीसिका. २१५.३ ताके हिरदै गई विकलता, प्रगट रही.करनी व्यवहार ॥ जह व्यवहार होय तह निहचे, होय न होय उभय परकार। जहँ व्यवहार प्रगट नहिं दीखे, तहां न निश्चय गुण निरधार१६ कवित्त. , आंख देख रूप जहां दौड़ तूही लागै तहां, सुने जहां कान त-है हां तूही सुनै वात है। जीभ रस स्वाद धरै ताको तू विचार करे । हैं नाक सूंघे वास तहाँ तू ही विरमात है । फर्सकी जु आठ जाति तहां कहो कौन भांति, जहां तहाँ तेरो नांव प्रगट विख्यात है। याही देह देवलमें केवलि स्वरूपदेव, ताकी कर सेव मन कहाँ है में दौड़े जात है ॥ १७॥ जासों कहें घर तामै डर तो कईक तोहि, सवन विसार हंस विपैरस लाग्यो है। गिरवेको डर अरु डर आगि पानीस्को, वस्तु राखवेको डर चौर डर जाग्यो है । पेट भरवेको डर रोग में शोक महाडर, लोकनिकी लाज डर राजडर पाग्यो है। डर है जमराजको डारि तूं निशंक भयो, जैसे मोह राजाने निवाज तोहि दाग्यो है ।। १८॥ । रागी द्वेषी देख देव ताकी नित करैसेव, ऐसी है अबेव ताको कसे पाप खपनो राग रोग क्रीडासंग विपैकी उठे तरंग, ताही में अभंग रैन दिना करें: जपनो ॥ आरति ओ रौद्र ध्यान दोऊ किये आगेवान, एते चहें कल्यान देके दृष्टि ढपनो । अरे मिथ्या है चारी ते विगारी मति गति दोऊ, हाथ ले कुल्हारी पाँय मारत है । ए अपनो ॥ १९॥ छप्पय. . जन्म जरा अरु मरन, पाप संताप विनास। रोग शोक दुख हरै, सर्व चिंता भय नासै ॥ . . spapeDSPIRPORDWPDADARPORPORPROPER Kasawantwanew/andrenionirantarawendianasanasenasantavasnaseraotomasvenorancoas postowardowanawaangaande productieprawdopo serbis
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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