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________________ AMRAPAAAme FEWARUPaneprenePenweepesonancompROOR ___ उपदेशपचीसिका. १४९९ ऐसे काल बलिष्टको, जो जीत सो देव ॥ कहत दास भगवंतको, कीज ताकी सेव ॥७॥ काल वसत जगजालमें, नूतन करत पुरान ।। 'भैया' जिहँ जग त्यागियो,नमहं ताहि धर ध्यान ॥ ८॥ इतिकालाष्टक, e ranteawnapahapathaprasapenanorancompanieroenpanavaraapanasanadaneous अथ उपदेशपचीसिका लिख्यते। दोहा. वीतरागके चरनयुग, वंदो शीस नवाय ॥ कहुं उपदेशपचीसिका, श्रीगुरुके सुपसाय ॥१॥ चौपाई. वसत निगोद काल वह गये। चेतन सावधान नहिं भये ॥ दिन दश निकस बहुर फिरपरना।एते पर एता क्या करना ॥२॥ अनँत जीवकी एकहि काया। उपजन मरन इकत्र कहाया ॥ स्वास उसास अठारह मरना । ऐते पर एता क्या करना ॥२॥ अक्षरभाग अनंतम कह्यो । चेतन ज्ञान इहालों रह्यो।। कौन सकति कर तहां निकरना । एते पर एता क्या करना ॥४॥ पृथिवी अप तेऊ अरु वाय । वनस्पतीमें वस सुभाय ॥ ऐसी गतिमें दुख बहु भरना । एते पर एता क्या करना ॥५॥ केतो काल इहां तोहि गयो। निकसि फेर विकलत्रय भयो । ९.ताका दुख कछु जायन वरना । एते पर एता क्या करना॥६॥ पशुपक्षीकी काया पाई । चेतन रहे तहाँ लंपटाई। विना विवेक कहो क्यों तरना । एते पर एता क्या करना. ॥७॥ इम तिरजंच माहिं दुख सहे । सो दुख किनहूं जाहि न कहे, MORRORPOPORPRESponsparen-do/openPeos erstdoctoratorio periode waarderea tercatatansen
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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