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________________ 83e9ectopassageide oprestera sercatore created REPORPORARWARENDSendhwamaanwaPERIONS ११३४ ब्रह्मविलालम। पहिली रतनप्रभा ते जान । दशराजू तिह कही बखान ॥ दूजी शोलह राजू कही। तीजी नरक चीसबै लही ॥१॥ चौथी नरक अठाइस राजु । तिह निकस्यो जिय सारे काजु ॥ पंचमि नरक राजु चौतीश । छट्टीचालिस कही जगदीश ॥१२ नरक सातवींकी मरजाद । कही छियालिस कथन अनाद ।। लोक अन्त सवत जो तरें । सो सब नर्क सातवीं धेरै ॥१३॥ सात नरककी गिनती जान । शतइक और ज्यानवे मान । सब राजू देखे जगदीस । भये तीनसे तैतालीस ॥ १४ ॥ घनाकार सव भुवनहिं जान । ऊंची राजू चवदह मान । सागर स्वयंभुरमणहिं जोय ।तिहबानहि राजूड़क होय ॥१५॥ ६ पुरुषाकार कह्यो सब लोक । ताके परें सु और अलोक ।। इहि मधि त्रसनाड़ी इक जान । ताके भेद कहूं उर आन ॥१६॥ चवदह राजू कही उतंग । राजू इक पोली सरवंग ॥ इतामहिं त्रसथावरको थान । याके पर सु थावर मान ॥१७॥ , इहविधि कही जिनागमभाख । ग्रंथ त्रिलोकसारकी साख ॥ धर्म ध्यानको जानहु भेद । वर्ण चतुर्थ लखहु विन खेद॥१८ है इतनो है यो लोकाकाश । छहों दरवको याम वास ॥ ४ चेतन ज्ञान दरश गुण धरै । और पंथ जड़ता अनुसरे ॥१९ रहै सदा इहि लोकमझार । तू 'भैया' निजरूप निहार ॥ ६ सत्रहसौ चालीसै सही। पोप सुदी पूनम रवि कही ॥२०॥ इति लोकाकाशक्षेत्रपरिमाणकथनं ॥ FacraneareranameterantosveretsventuavaniprantvesaaMaitaraivanbadvanta a series FORGPORDPRPAPEReGERWERwandar
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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