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________________ मढी [१८५] सं० तृषा - तिरसा - तिरस । प्राकृत में 'ऋ' के स्थान में 'इ' का भी उच्चारण होता है जैसे कृपा - किया। गुज० तरस, तरा। भजन ३५वां १३३. मढी - मढी - संन्यासियों का निवास स्थान | सं० मठिका प्रा० मदिआ - मढी | संस्कृत धातुओं में 'निवास' अर्थवाला 'मठ' धातु है । प्रस्तुत 'महा' की वा संस्कृत 'मठ' की प्रकृति 'मठ' धातु है ऐसा मत वैयाकरणों का 1 "मट - आवसथ्य- आवसथाः स्युः छात्र - त्रतिवेश्सनि”–" मठन्ति निवसन्ति अत्र मठः " - ( हैम अभिधानचिन्तामणि कांड ४ श्लो०. ६० टीका ) 'मठ' का अर्थ है 'ब्रह्मचारी छात्रों का वा -मुनियों का निवास स्थान' | 'मठ' के मूल के लिए अन्य भी कल्पना हो सकती है: सं० 'मृष्ट' शब्द 'शुद्ध' - 'साफ-सुथरा ' अर्थ में है । 'सृष्ट' का प्रा० 'मट्टू' और संभव है कि 'मह' I 'पर से 'मठ' आया हो । १३४. तीसना - तृष्णा - लोभ | सं० तृष्णा-प्रा० तिसना- तीसना । 'ऋ' का 'इ' उच्चारण और 'ग' के बीच में 'अ' कार 'का प्रवेश होने से 'तृष्णा' से 'तिसना' बन जाता 1 १३५. पावडली - पावडी । सं० पादुका - प्रा० पाउआ । 'क' के स्थान में स्वार्थिक''
SR No.010847
Book TitleBhajansangraha Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGoleccha Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages259
LanguageHindi Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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