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________________ [१७२] धर्मामृत ९६, कहावे-कहा जाते हैं। कथ्यते-कथाप्यते-कहावीअइ-कहाबोइ-कहावे । दशमें गणमें कर्तासूचक 'अय विकरणकी तरह 'आपय' प्रत्यय भी होता है उसका प्रा० 'आव' प्रत्यय प्रसिद्ध है। भजन १८ वां ९७, ऊरध-ऊंचा सं० अर्ब । 'र' और 'च' की बीच में 'अ'. आने से 'ऊरध्व' और उच्चारण की क्लिष्टता को मिटाने के लिए अंत्य • . ध्व' का 'व' लुप्त हो जाने से ऊरध । ९८. पहिचाने-पहिचान करे-ओलख करे । प्रत्यभिजानोति-पच्चहिजाणइ-पच्चहिजानइ-पहिचाने । उच्चारण को त्वरा से 'पञ्चहिजा' का 'पहिचा' हो गया मालम होता है। गूजराती 'पिछाणवू' और 'पिछाण' शब्द का मूल भी 'प्रत्यभिजाना' में हैः प्रत्यभिजाना-पञ्चहिजाण–पहिचाणपिछाण और पिछाणवू । . भजन १९ वां ९९. वरम-ब्रह्मज्ञान-व्यापक भाव का अनुभव सं० ब्रह्म-बरम्ह-बरम । 'ब्रह्म' के 'व' में, बीच में 'अ' — आया और 'ह्म' का 'म्ह! होकर उच्चारण सौकर्य के लिए 'बर-ह-'बरम हो गया है।
SR No.010847
Book TitleBhajansangraha Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGoleccha Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages259
LanguageHindi Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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