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________________ [८०] धर्मामृत (७१), . कफनी महाश्वेता-शुं कहुं कथनी मारी राज-ए राग कफनीए केर मचाव्या राज, कफनीए केर मचाल्यो; मने भवनाटक नचायो राज, कफनीए० टेक संन्यासी हुं नगरनिवासी जनपरिचयथी उदासी; घ्याननो भंग थवाथी त्रासी पहाड उपर गयो नासी। क० १ एक गुफानो आश्रय लीधो, फळ पत्र फुल खाउं भावे; . एकांते घरं ध्यान प्रभुनु, त्यां विधि वांको थावे । राज क० २ एक दिन मारी कफनी कापी, उंदरडीए वेर वान्युः तस रोधे तन रक्षण अर्थ, बिल्लीनुं बच्चु में पाळ्युं । राज० क० ३ मंजारीनी गंधे उंदरडी, भय भाळीने भागी; एक उपाधि मटी तन पाछळ, बीजी उपाधि जागी। राज० क०४ काखमां घाली सांज सवारे, जउं हुं नित्य दूध पावा; तलेटीए भरवाड वसे ते, दे दूध जागी बावा । राज० क० ५ जातां वळतां काळक्षेपथी, आहेरने दया आवी; गाय उपाधिमय एक आपी, थाय न मिथ्या भावी । राज० क०६
SR No.010847
Book TitleBhajansangraha Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGoleccha Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages259
LanguageHindi Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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