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________________ [६८ धर्मामृत (६१) राग रामकली-अंवर दे हो मुरारी-ए देशी .. कुंथु जिन ! मनडु किमही न बाझे, जिम जिम जतन करीने राखं, तिम तिम अलगुं भाजे हो । कुं० १ रजनी वासर वसती ऊजड, गयण पायाले जाये; 'साप खायने मोहड्डं थोथु,' एह उखाणो न्याये हो । कुं० २ मुगतितणा अभिलाषी तपीया, ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे; वयरी९ कांइ एहवं चिंते, नांखे अवळे पासे हो । कुं० ३ आगम आगमधरने हाये, नावे किण विधि आंकुं: किहां किण जो हठ करी हटकुं, तो व्याळतणी परे वांकुं हो । कुं० ४ नो ठग कहुं तो ठगतुं न देखें, साहुकार पिण नांहि; सर्व माहे ने सहुथी अलगुं, ए अचरिज मनमांहि हो। कुं० ५ जे जे कहुं ते कान न धारे, आप मते रहे कालो; सुर नर पंडित जन समजावे, समजे न माहरो साला हो । कुं० ६ में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकळ मरदने ठेले; बीजी वाते समरथ छे नर, एहने कोइ न झेले हो। कुं० ७
SR No.010847
Book TitleBhajansangraha Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGoleccha Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages259
LanguageHindi Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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