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________________ आचार्य श्री तुलसी 1 इसके सिवाय स्पष्टरूपमे उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा। सूर्यकी किरणें उल्लास लिये आई । तीजका पुण्य प्रभात हुआ । आकाश और भूमि दोनों रूपवान् बनगये | जो छिपनेवाला नहीं, वह छिप नहीं सकता। वह चमकेगा, अपनेआप उसका रूप निखरेगा | उसके प्रति दूसरे उदार हों, इसमें शोभा है। इससे ऋण उॠणताके भाव बनते है, उपकार्य-उपकारक का सम्बन्ध जुड़ता है, तसे अद्वैत बनता है, श्रद्धा और पुजाकी भूमि तैयार होती है । ५८ कालगणीकी कृपाका दूसरा प्रवाह नया रूप लिए बहने चला है । लोगों की कल्पनाएँ मूर्त वनरही है। आचार्यवरने सब साधु-साध्वियों तथा श्रावकोंकी उपस्थितिमे युवाचार्य पदका पत्र लिखा । शरीर अस्वस्थ था । हाथमे अतुल वेदना थी । फिर भी कर्तव्य निभानेकी असीम भावना थी । इस घडी से पहले उन्हें शासन - प्रबन्धकी चिन्ता मुक्ति नहीं दे रही थी। वे अपने उत्तरदायित्वमे कोई खामी देखना नहीं चाहते थे । गुरुदेवने आपको युवाचार्य - पदका उत्तरीय धारण कराया । अपना लिखा पत्र पढ़ा : - "गुरुभ्यो नम . भिक्षु पाट भारीमाल भारोमाल पाट रायचन्द रायचन्द पाट जीतमल जीतमल पाट मघराजा
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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