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________________ आचार्य श्री तुलसी तेरापन्थ संघ शिष्य के लिए आचार्य के वात्सल्यका वही स्थान है, जो प्राणीके जीवन मे श्वास वा । आपने कालुगणीका जो वात्सल्य पया, वह असाधारण था । आचार्य के प्रति शिष्य का आकर्षण हो, यह विशेष बात नहीं, किन्तु शिष्य के प्रति आचार्यका सहज आकर्षण होना विशेष बात है । उसमें भी कालुगणी जैसे गंभीरचेता महापुरुपका हृदय पा लेना अधिक आश्चर्य की बात है । जिन्हे अपनी श्रीवृद्धिमे बहिजगतका प्ररक्ष सहयोग नहीं मिला, अपनी कार्यजा शक्ति, क्टोर श्रम और हट निश्चय के द्वारा ही जो विकसित बने, वे कालुगणी अनायास ही ११ वपके नन्हे शिष्यको अपना हृदय सौंप दे, इसे समझने मे कठिनाई है किन्तु सौपा, इसमे कोई शक नहीं । जैन - साधुओंको आचार और विचार ये दोनो परम्पराए समान रूप से मान्य रही है । विचारशून्य आचार और आचारशून्य विचार पूर्णता की ओर ले जानेवाले नहीं होते । दीक्षा होने ३४ के साथ-साथ आपका अध्ययनक्रम शुरू हो गया। उसकी देखरेख कालुगणीने अपने हाथमे ही रखी। एक ओर जहा चरम सीमाका वात्सल्य भाव था, दूसरी ओर नियन्त्रण और अनुशासन भी कम नहीं था । साधु- संघका सामूहिक अनुशासन होता है, वह तो था ही। उसके अतिरिक्त व्यक्तिगत नियन्त्रण और अनुशासन जितना आप पर रहा, शायद ही उतना किसी दूसरे पर रहा हो। चाहे आप यों समझ लें - वह जितना आपने सहन किया, उतना शायद ही कोई दूसरा सहन कर सकता है ।
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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