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________________ १७२ आचार्य श्री तुलसी है। उनके संयमी जीवनके लिए उपयोगी अन्न, वस्त्र आदि सामग्री (स्वयं अपने लिए संकोच कर) देना धर्म-दान है। प्रोफेसर-ऐसा लगता है, आपका दान विपयक विचार पुरातन कालीन जैन परम्परासे विपरीत जाता है। आचार्यश्री-पुरातनकालीनसे नही, मध्यकालीन से। पुरानी जैन परम्परा तो यही थी। संयमोपवर्द्धक दानके अति रिक्त अन्य किसी भी दानको उसने अध्यात्सदान नहीं माना। किन्तु मध्ययुगमे ऐसी स्थिति आई, जबकि येन केन प्रकारेण याचकोंको कुछ न कुछ दे देना ही धर्म-कोटिसे माना जाने लगा। सम्भव है समाजशास्त्रियोंने समाजको आवश्यकताओं की पूर्तिके लिए इसको धर्मसे जोड़ दिया हो। प्रबल परिस्थितियोंके वेग तथा अन्य संस्कृतियोके प्रसारपूर्ण वातावरणसे जैन भी अपनेको अछता नहीं रख सके। उनको भी लोक-प्रवाहमे बहना पडा। दीन दुखियोंको दिये जानेवाले दानको उन्होने भी पुण्य दानमे समाविष्ट कर लिया। प्रोफेसर-ये सिद्धात बडे सूक्ष्म एवं वारीकीपूर्ण हैं। आपकी दान-परम्परा भिक्षाविरोधी युगके लिए बहुत उपयोगी है।
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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