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________________ १७० आचार्य श्री तुलसी वार्तालापके दौरानमे आचार्यश्री ने दान-दयाका विवेचन करते हुए बतलाया। ____ "पापाचरणसे अपनेको बचाना, दूसरोंको बचाना यही नैश्चयिक दया है-आध्यात्मिक अनुकम्पा है। दीन-दुःखियों पर दया दिखाकर उनकी भौतिक सहायता करना, जीवन-रक्षा करना सामाजिक तत्त्व है। समाजके व्यक्ति जीवित रहे, सुखी रहें, सुखसे जीएं-- यह सामाजिकोंका दृष्टिबंध है। अतः अपने दूसरे सामाजिक भाईकी सहायता करना सामाजिक कर्तव्य है । उसे धर्मसे क्यों जोडा जाय ? धर्ममे जीने जिलानेका महत्व नहीं है। उसमे उठने उठानेका महत्त्व है। आज सर्वत्र 'जीओ और जीने दो, की तूती बोलती है, किन्तु हमारा नारा इससे प्रतिकूल है। वह है-उठो और उठाओ-स्वयं उठो-आत्मोत्थान करो और दूसरोको उठनेकी प्रेरणा दो, उनके सहायक बनो। एक व्यक्ति कहीं जा रहा है। रास्तेमे चींटी आ गई । 'चीटी को कुचलकर मेरी आत्मा पापलिप्त न हो जाय' यह सोच वह अपना पैर खींच लेता है। उसकी आत्मा उस सम्भावित हिंसाजन्य पापसे बच जाती है, साथमे प्रासंगिक रूपसे चींटीके प्राण भी बचते है। अब प्रश्न होता है कि उस व्यक्तिने अपने प्रति दया की या चीटीके प्रति १ अपनेको पापसे बचाया, यह दया है *जन भारती वर्ष १२ अक १३ मार्च १९५१ 'आत्मा और दयादान' शीर्षक लेखसे ।
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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