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________________ __११८ आचार्य श्री तुलसी है, श्रावक वर्गके पास धन बहुत है, वह अपने आचार्यजीकी प्रशंसा सुननेके लिए धनके बल पर टानलाता है, आनेवाले धनके लालचसे आते है, उन्हें खुश करने के लिए अथवा सभ्यताके नाते दो-चार अच्छे शब्द कह देते है, आदि आदि । आखिर इसका वीज क्या है ? यह कार्य क्यों चला और चल रहा है ? आप इसे किस दृप्टिसे देखते है ? इस रहस्यपूर्ण मुद्दे पर मैं मेरी स्फुट धारण रखनेकी चेष्टा करूंगा। ___ आचार्यश्रीका नेतृत्व सम्हालनेके तुरन्त बादसे यह ध्यान रहा है कि हमे अपने पूर्वाचार्यों द्वारा विरासतके रूपमे जो संगठन और चैतन्य मिला है, उसका पूरा-पूरा उपयोग होना चाहिए | समय-समय पर इस भावनाको आप साधु-संघ तथा श्रावक-संघ के सामने व्यक्त करते रहे। आपने अनेकों बार श्रावकोसे कहा . "तुम स्वार्थी मत बने रहो। तुम्हारे पास जो कुछ है, वह दूसरोंको बताओ, वे लेना चाहें तो दो। इसमे तुम्हारा हित है और उनका भी।" इससे श्रावकोंको बल मिला । उन्होंने प्रचार-कार्यकी तालिका बनाई। उसमे एक कार्यक्रम यह भी रखा कि विशिष्ट व्यक्तियो से सम्पर्क-साधना और उन्हें आचार्यश्रीके सम्पर्कमे भी लाना। योजनाके अनुसार कार्य शुरू होगया । अकल्पित सफलता मिली। परिधिसे बाहर रहनेवालोंको आश्चर्यसे अधिक सन्देह होने लगा। उनका दृष्टिविन्दु यहीं केन्द्रित रहा कि यह सब प्रलोभनके सहारे हो रहा है, नहीं तो यकायक यह परिवर्तन कैसे आता
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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