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________________ उद्धृत करके जयधवलाम (पृ० २६० ) विशेष रूपसे स्पष्ट की गयी है। इससे सूचित होता है कि आचार्य सिद्धसेनके मन्तव्यका तत्कालीन दिगम्वर पर+परमें भी कितना महत्व था। एक और भी ध्यान देने योग्य बात है और वह यह कि उक्त दोनो स्थानोपर आचार्य सिद्धसेनके सन्मतिको सूत्र ( सम्मइसुत्त ) कहा है, जिससे सूचित होता है कि वह अन्य सूत्रकोटिका माना जाता था। विद्यानन्दी विद्यानन्दी भी अकलक जैसे ही प्रसिद्ध और प्रकाण्ड दिगम्वर आचार्य थे। उन्होने तो अकलंकको अपेक्षा भी सिद्धसेनीय कृतियोकी अधिक उपासना की हो, ऐसा लगता है, क्योकि वह अपने लोकवातिकमे मात्र समितिको गाथा उद्धृत करके ही सन्तोप नहीं मानते, परन्तु कहीपर वह सिद्धसेनके मतको सविशेष मान्य रखते हैं, तो कही उनके मतका विरोध करते भी प्रतीत होते है। पर्यायसे गुणके भिन्न न होने की वातका स्वीकार अकलकके ही समान होनेके कारण उस तरफ ध्यान न भी दे, तो भी मूल दो नयोमे उत्तरनयोके बंटवारेका विद्यानन्दी द्वारा किया गया स्वीकार समिति के अवलोकनपर आश्रित हो, ऐसा जान पड़ता है',क्योकि ऐसा वटवार। लोकवातिकके आधारभूत सर्वार्थसिद्धि या राजवातिकमे नही दिखायी पडता और दिगम्बरीय अन्योमें सर्वप्रथम श्लोकवातिकमे ही दृष्टिगोचर होता है। विद्यानन्दीने नैगमनयको भिन्न मानने के बारेमे और नय छ नही, किन्तु सात ही होने चाहिए, इस बारेमे जो चर्चा की है, वह सिद्धसेनके ५ड्नयवादके सामने ही प्रतीत होती है, क्योकि दिगम्वरीय अन्योमे कही भी પન્નયવાવને સ્વીવરલી વાત હી નહી વિવાથી પડતી. વિદ્યાનન્દી વિરિષ્ઠ एक विस्तृत नयनिरूपण, उनके कथनानुसार, भले ही 'नयचक्र" पर अवलम्वित हो, किन्तु उसमे सिद्धसेनके नविषयक विचारीका बहुत ही स्पष्ट प्रतिधोप है। मल्लवादी अथवा अन्य किसी आचार्य के नयचक्रके अभ्यासके परिणामस्वरूप વિદ્યાનન્ધી નથનિરપળને સપ્તમમિયો વિવિધ મેવો નો વર્ણન , કલમે सन्मतिगत सप्तमगीक परिचयका थोडा भी हिस्सा होगा, ऐसी सम्भावना रहती है। विद्यानन्दीको सन्मतिका खास परिचय था, यह बात पूर्वोक्त उल्लेखसे सिद्ध होने के पश्चात् इस सम्भावनाको पुष्टिमे कुछ अधिक कहने जैसा नहीं रहता। १. पृ० ३ पर समिति के तीसरे काण्डको ४५वीं गाया उद्धृत है। - २. अ० १, सू० ३३ का श्लोक तीसरा, तत्वार्यश्लोकवातिक पृ० २६८ । ३. अ० १, सू० ३३ के श्लोक १७-२६, तपार्यश्लोकवातिक पृ० २६९ । ४. 'तविशेषा. प्रपञ्चन संचिन्त्या नयचक्रतः।' १, ३३ का १०२वां लोक।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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