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________________ विरासतवाले आगमोको अक्षर नही मानती थी, इससे कमवादके उपासक आगमिक श्वेताम्वर विद्वान् युगपद्वादी दिगम्बर विद्वानोको इतना ही कहते होंगे कि तुम्हारे युगपदादको आगमका आधार कहाँ है ? आगममे तो हमारा क्रमवाद ही स्पष्ट रूपसे आता है। आगमका परित्यागकर अलग हो जाने वाले दिगम्बर विद्वानीने गास्त्राधारके वलको बहुत परवाह नहीं की होगी, फिर भी श्वेताम्बरी4 साहित्यमे यह चर्चा पहले ही से थोडी-बहुत होती रही होगी। यह चर्चा सिद्धसेन अथवा उनके जैसे दूसरे किसी प्रतिभाशाली दार्शनिक विद्वान्ने देखी और तर्क एव दर्शनान्तर अभ्यासके वलपर उन्हें नया स्फुरण हुआ होगा कि क्रमवादको अपेक्षा युगपदाद अधिक सयुक्तिक है, फिर भी उसमे भी कुछ कमी है। वस्तुत. केवलोपयोगका अभेद ही होना चाहिए। यह बात उन्हें स्फुरित तो हुई होगी, परन्तु शास्त्राधारके विना कोई भी वस्तु न मानने के मानसवाले उस जमानमें उस स्फुरणका प्रतिपादन शास्त्राधार विना करना शक्य नहीं था। इसीलिए उन्होंने अपने नवस्फुरित मन्तव्यको प्राचीन जैन आगमोमेसे फलित करने का और तदन नुसार शब्दोका अर्थ और पूर्वापर सम्वन्ध घटाने का प्रयत्न प्रारम्भ किया। इस प्रकार अभेदवादके पुरस्कता एव उनके अनुगामी श्वेतावर विद्वानोने अभेदवादको आगमके आधारपर खडा किया । तव आगमभक्त क्रमवादी श्वेताम्बर विद्वानोके लिए अभेदवादको खण्डन करना कठिन हो गया । अव युगपद्वादियोको भांति अभेदवादियोको सिर्फ इतना ही कहने से चल नहीं सकता था कि तुम्हारे वादको तो शास्त्रका आधार नही है। यह वात विशेषणवतीकी गाथा १४८ मे आयी हुई प्रस्तुत पादकी चर्चाका आरम्भ देखते ही स्पष्ट हो जाती है। उसमे युगपवादको तो शास्त्र के आधारसे रहित है, इतना ही कहकर अलग हटा दिया है और क्रमवादका स्थापन अभेदवादके खण्डनसे ही शुरू किया है। समय चमि पूर्वपक्षक रूपमे केन्द्रस्थानमे अभेदवार ही है, और जो-जो आगमविरोध, युक्तिशून्यता आदि आक्षेप किये गये है, वे सब अभेदवादको ही सीधे तौरपर लक्षित करके किये गये हैं। यदि अभेदवाद चर्चामे उपस्थित न हुआ होता अथवा उ५स्थित होनेपर भी उसने शास्त्रका आधार न लिया होता, तो वह या तो अजाक रहता या ज्ञात होनेपर भी टिक न पाता। सारा यह है कि प्रस्तुत वाद विकास मुख्यत तक एक आगमनिलाके संघर्पणके कारण ही हुआ है। (ग) प्रस्तुत वादके आद्य सूत्रवारोका प्रश्न हमे सन्मति एक विशेषणवतीम, आयी हुई अपने अपने पक्षका स्थापन करनेवाली तथा विरोधी पक्षका खण्डन करनेवाली दलालोको ध्यानसे जांचने के लिए प्रेरित करता है। सन्मतिके दूसरे काण्डकी
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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