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________________ ४६ १२. आप्तमीमासाके २लो० २४-७ में और सन्मति के।०३ गा० ४८ में मतमतको कथन आता है, फिर भी इन दोनोमे अन्तर यह है कि पहलेमे मत शब्दका उल्लेख है, पर वह अद्वैत किसका और कौनसा इसका कोई निर्देश नहीं है, किन्तु २लो० २५ गत विद्याविद्याद्वय न स्यात्' के आधारपर ऐसा कहा जा सकता है कि वह अद्वैत वेदान्तसम्मत है, जबकि दूसरेम अद्वत शब्दका निर्देश नहीं है, परन्तु कापिलदर्शनका द्रव्यास्तिकके मुख्य आधारके रुपमे निर्देश होने से उसमें वेदान्तसमत अढत नहीं है। ___इन सबके अतिरिक्त खास ध्यान देने जैसी बात तो यह है कि आप्तमीमासामे आप्त अर्थात् सर्वज्ञका निरूपण करते समय उसके वचनका स्वरूप अनेकान्तरूप कहा गया है,और सन्मतिमें भी जिन अर्थात् सर्वशके २॥सनको ही सर्वश्रेष्ठ मानकर उसका निरूपण करते समय अनेकान्तकी ही चर्चा की गयी है। भारतीय दर्शनामे शास्त्रका प्रामाण्य एक प्रधान और रसिक चर्चाका विषय है । जो शास्त्र अनादि और अपीरुपये अर्थात् किसी के द्वारा रचा न गया हो, वह प्रमाण ऐसा एक पक्ष परापूर्व से चला आता था, जो कि इस समय जैमिनीय मतके नामसे प्रसिद्ध है। इसके विरुद्ध वैशेषिक-नैयायिक आदिका दूसरा पक्ष था। उसका कहना था कि शास्त्रका प्रामाण्य उसके अनादित्व अर्थात् नित्यत्वक कारण नहीं है, परन्तु वक्ता के प्रामाण्य५२ आश्रित है । ऐसा प्रमाणभूत पूर्ण वक्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा कोई नही हो सकता, अत ईश्वरप्रणीतत्वके कारण ही उस शास्त्रका प्रामाण्य है । इन दोनो पक्षोको शास्त्र तो एक अर्यात् श्रुति ही प्रमाणके रूप में मान्य था, केवल उसके प्रामाण्यके कारणमे ही दोनोमे मतभेद था। दूसरे पक्षको विशेषता यह है कि उसने ईश्वरप्रणीतत्व स्वीकार करके शास्त्रमे मान्य अनादिव अपने ढगसे सुरक्षित रखा और साथ ही अपीरुपयत्ववादके सामने पौरुषयत्ववादका बीज भी दाखिल किया। इन दोनो पक्षोके सामने एक तीसरा बुद्धिगम्य वाद आया। उसने कहा कि शास्त्रका प्रामाण्य मान्य है, वह वक्ता के प्रामाण्य के अधीन है यह बात भी स्वीकार्य है, परन्तु वक्ता मुखवाला और वोलनेवाला शरीरी मनुष्य ही हो सकता है। इस वादमसे दो बाते फलित हुई । एक यह कि पहलेके दो पक्षोको जो अमुक ही निश्चित शास्त्र अर्थात् आनायका प्रामाण्य मान्य था, उसके स्थानपर आप्तोक्त सभी वचनोका प्रामाण्य मानना चाहिए, और दूसरी यह कि जो मनुष्य शुद्ध वुद्ध हो, वे सभी ईश्वर से पूर्ण होनेसे ईश्वर माने जाने चाहिए। यह तीसरा वाद सबसे पहले किसने उपस्थित किया, यह कहना कठिन है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि भगवान महावीर और बुद्धके युगका इस वादको उपस्थिति
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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