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________________ ‘दवेण विणा ण गुण। गुहिं दव्व विणा ण सभवदि' इत्यादि पचास्तिकायकी १३वी गाथाके साथ साम्य रखने वाला कोई भाग सन्मतिम नहीं है। इसका कारण यह है कि सन्मतिकारने गुणको पर्यायसे भिन्न नही माना। ३. कुन्दकुन्द प्रवचनसारके अ० १ की गा० ५७-८ मे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष शब्दको लोकप्रथाविरुद्ध स्वेष्ट व्याख्या करते हुए दूसरे वादियो द्वारा किये जानेवाले आक्षेपीका जैनाचार्य के रूपमें उत्तर भी देते है । सिद्धसेन भी न्यायावतारके २लोक ४ मे प्रत्यक्ष एवं परोक्ष शब्दकी, जैन दृष्टिसे मेल खाय ऐसी, ताकिक व्याख्या जैन तार्किक रूपमें सर्वप्रथम करते है। किसी भी एकान्त पक्षको स्वीकार करने मे दो५ आता है, इस दोषको स्पष्ट करने के लिए कुन्दकुन्द (प्रवचनसार अ० १ ४६ ) और सिद्धसेन ( का० १, १७-८) दोनोने ससार एव मोक्षकी अनुपपत्तिकी कल्पनाका एक-सा उपयोग किया है। समन्तभद्रने भी अनेकान्तदृष्टिकी पुष्टिमे यह कल्पना की है ( स्वयंभू० २लो० १४ ) । यह कल्पना आगे जाकर सब आचार्योंके लिए साधारण-सी हो गयी है । अनेकान्तदृष्टिका आश्रय लेकर कुन्दकुन्दने समय द्रव्यांचा प्रवचनसारमे की है, तो सिद्धसेननसन्मति के तीसरे काण्डमे इसी दृष्टि से शेयका स्वरू५ स्पष्ट किया है। ऋग्वेद जितने पुराने जमानेसे चले आनेवाले और कालक्रमसे भिन्न-भिन्न अर्थमें समस्याका रूप धारण करके दार्शनिक प्रदेश कार्यकारणको चाम प्रविष्ट सत्, असत् शब्द और उनसे सम्बद्ध वाद पचास्तिकाय अ० १, गा० १५-२१ तथा सन्मति काण्ड ३, गा० ५० २ में अनेकान्त के रूप में व्यवस्थित किये गये है। दर्शनान्तर के साथ जनदर्शनके मतभेदका बुनियादी और एक खास मुख्य विषय आत्मस्वरूपका है। વાત્મા છત્ત્વ, મોસ્તૃત્વ, અમૂર્તત્વ જ પરિમાળ વાવિ વારેમે નૈન વનો विशिष्ट मन्तव्य क्या है, यह पचास्तिकाय (अ० १, गा० २७) में है । इसी तरह सन्मति (का० ३, गा० ५४-५ ) में भी आत्मस्वरूपसे सम्बद्ध छ मुद्दे जन दृष्टि से निश्चित करके उनकी चर्चा की गयी है। सिद्धसेनके सन्मति (का० २, गा० ३२)गत श्रद्धा अर्थात् दर्शन और शानके ऐक्यवादका भास कुन्दकुन्दके समयसार (११३ ) में स्पष्ट है। फर्क इतना ही है कि सिद्धसेनने श्रद्धात्मक दर्शन एवं सानक ऐक्य के अतिरिक्त इस ऐक्यको सामान्य बोधरूप दर्शन और शान के प्रदेश में १. सन्मति का० ३, गा० ८ से २५ । २. नासदासीनो सदासीत्तदानों नासीद्रजो नो व्योमायरो यत् । ऋग्वेद, नासदीयसूक्त म० १०, १२९ तथा छान्दोग्य० ६.२.१ ।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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