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________________ २२ यह सुनकर गुणपक्षपाती राजाने दिवाकरको बुलाया और दिवाकरने राजसम्मत आसनपर बैठकर ये चार श्लोक' कहे "यह अपूर्व धनुविद्या तुम कहाँ से सीखे, जिसमे मार्गेण समूह तो सामने आता है, पर गुण दूसरी दिशाओमे जाता है ?" [ १२६ ] "तुम्हारे यशरूपी राजहसको पीने के लिए ये सातो समुद्र प्याले जैसे हैं और उसके रहनेका पिंजडा तीन जगत् है ।" [ १२७ ] "विद्वान् 'तुम सर्वदाता हो' ऐसी तुम्हारी जो सदा स्तुति करते हैं, वह मिय्या है, क्योकि तुमने शत्रुओको पीठका दान और परस्त्रियोको हृदयका दान नही किया ।" [ १२८ ] "हे राजन्, जो भय तुम्हारे पास नही है, वह भय ही तुम सर्वदा अनेक शत्रुमोको विधिपूर्वक देते हो, यह एक वडा आश्चर्य है ।" [ १२९ ] 1. इस मतलवके श्लोको द्वारा दिवाकरने राजाकी स्तुति की। इसपर उस राजाने दिवाकरकी स्तुति करके कहा कि "जिस सभामे आप हो वह सभा धन्य है; अत आप यही रहे ।" इस प्रकार राजाके कहनेपर दिवाकर उसके पास रहने लगे હુ વાર વહ રાનવે સાથે ડોવર મન્દિરમે યે । મન્વિત્ઝે વરવાનુંસે વિવાર વાપસીટને મેં, ગિલપર નાનાને અનસે પૂછા િ‘બાપ વેવળી નવા યો તે हैं, और नमस्कार क्यो नही करते ?" दिवाकरने कहा कि "हे राजन् ! मैं तुम्हें १. अपूर्वेयं धनुविद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणोधः समम्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥ १२६ ॥ श्रमी पानकुरंकामाः जलराशयः । भुवनत्रयम् ॥ १२७ ॥ सप्ताऽपि पंजरं संस्तूयते बुधैः । ચદ્યશોરાનöસસ્ય सर्वदा सर्वदोऽसीति मिय्या नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥ १२८ ॥ भयमेकमनकेम्य शत्रुभ्यो विधिवत्सदा । ददासि तच्च ते नास्ति राजन् ! चित्रमिदं महत् ।। १२९ ।। २. मार्गण श्रर्थात् वाण और याचक | विशेषपक्ष में मार्गणका अर्थ वाण સમક્ષના બૌર સ રિહારમેં યાવળ સમસના । ३. गुण श्रर्थात् धनुष्यकी डोरी तथा लोकप्रियता आदि गुण । विरोधपक्ष में धनुष्यकी डोरी श्रयं लेना और उसके परिहारमें लोकप्रियता श्रादि गुण समझना ।
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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